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पुण्यतिथि विशेष: मधु लिमये का सदन में आना ऐसा था, जैसे रोम के महाप्रांगण में बब्बर शेर का प्रवेश करना

By अनुराग आनंद | Published: January 08, 2021 9:35 AM

जिस बांका के प्रांगण को इतने बड़े गरीबों ,दलितों पिछड़ों वंचितों के रहनुमाई ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया, आज उसी जमीन पर आमलोग तो छोड़िये पढ़े लिखे ग्रेजुएट छात्र और ज्यादातर शिक्षक मधु जी के नाम से अपरिचित हैं।

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ठळक मुद्देमधु लिमये 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय दल के नेता थे। मधु लिमये पहली बार 1964 के उपचुनाव में मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए थे।

पटना: बिहार का बांका और मुंगेर दो ऐसा जिला है, जो कभी संयुक्त समाजवादी पार्टी के नेता मधु लिमये जी की कर्मस्थली हुआ करता था। बिहार के सर्वाधिक गरीब व पिछड़े लोकसभा में से इन दोनों ही जिलों की गिनती होती थी। शायद यही वजह था कि मधु जी ने इस क्षेत्र को अपने राजनीतिक कर्मस्थली के रूप में चूना था।

मधु जी डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे से बेहद प्रभावित हुए थे। उन्होंने बाद में इस नारे को अमलीजामा पहनाने का भी प्रयास किया था। आज जब दलों में सत्ता और पद की दौड़ मची है ,सरकार बनाने और गिराने के लिए नेता किसी हद तक जाने के लिए तैयार हैं, तो ऐसे समय में मधु लिमये जी जैसे नेता को याद किया जाना बेहद जरूरी हो जाता है।

यह आश्चर्य कि बात है कि जिस बांका के प्रांगण को इतने बड़े गरीबों ,दलितों पिछड़ों वंचितों के रहनुमाई ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया, आज उसी जमीन पर आमलोग तो छोड़िये पढ़े लिखे ग्रेजुएट छात्र और ज्यादातर शिक्षक मधु जी के नाम से ना सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि कई लोग तो ऐसे भी हैं, जो पूछने पर पहली बार आपके ही मुंह से यह नाम सुनते हैं।

डॉक्टर लोहिया की सहमति से ही मधु लिमये संसदीय दल के नेता बने थे-

मधु लिमये 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय दल के नेता थे। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और जार्ज फर्नांडिस भी इसी दल से लोकसभा के सदस्य हुआ करते थे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सामाजिक न्याय के शीर्ष पुरुष डॉक्टर लोहिया की सहमति से ही लिमये संसदीय दल के नेता बने थे। सच पूछिए तो यह लोहिया जी की योग्यता और क्षमता का ही पुरस्कार मधु जी को मिला था। 

अपनी पार्टी व स्वंय के विचारों पर टिके रहने वाले लिमये सामाजिक न्याय के मसले पर किसी भी तरह से समझौता करने के लिए तैयार नहीं होते थे। मधु लिमये पहली बार 1964 के उपचुनाव में मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए थे। फिर 1967 में दोबारा चुनाव जीतने के बाद बाद में एक बार फिर 1977 में सांसद बने थे। 

मधु लिमये जी जब बांका से चुनाव लड़े और कार्यालय का किराया देने के लिए पैसा नहीं था-

एक कहानी है कि 1980 में वे बांका से चुनाव लड़ रहे थे। संयोगवश बांका एक ऐसा इलाका है जो पहले मुंगेर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा हुआ करता था। बाद में बांका एक नया लोकसभा क्षेत्र बना। बांका में एक सज्जन 1964 से ही अपना मकान चुनाव कार्यालय के लिए मधु जी की पार्टी को दिया करते थे।

अभी तक कभी माकन मालिक ने उनसे कोई किराया नहीं मांगा था। लेकिन, जब 1980 में भी वही मकान उनका चुनाव कार्यालय बना, तो इस बार मकान मालिक ने किराया मांग लिया।

कार्यकर्ताओं ने मकान मालिक से जब मधु जी की साधनहीनता की बात कही, तो मकान मालिक ने कहा कि अब तो वे सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य हैं तो फिर साधनहीनता क्यों ? मधु लिमये जी ने कभी अपने लिए पैसों व साधन को जमा करने के लिए नहीं सोचा था, ऐसे में जब इस बारे में पता चला तो वह इस वाकये से काफी दु:खी हुए थे। यही साधनहीनता इस चुनाव में लिमये जी के लिए बड़ी कारण बनीं और बांका से वो ये चुनाव हार गए। 

हारने के बाद चौधरी चरण सिंह ने राज्य सभा का सदस्य बनने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने पिछले दरवाजे से सांसद में जाना स्वीकार नहीं किया। मधु लिमये जी की कथनी-करनी में अंतर नहीं था। 

"मधुजी का सदन में आना जैसे रोम के महाप्रांगण में बब्बर शेर का प्रवेश करना"

एक वरिष्‍ठ  पत्रकार “भारत वार्ता” नाम के एक पोर्टल में उन दिनों कि याद को कुछ ऐसे लिखा- मैं संसद के दिन कभी नहीं भूल सकता, जब मधु लिमये अपना छोटा-सा बस्ता हाथ में लिए लोकसभा सदन में घुसते थे। ज्यों ही मधुजी सदन के दरवाजे से प्रवेश करते, संपूर्ण कक्ष को सांप-सा सूंघ जाता था।

लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुमसिंह की आंखें मधुजी की सीट पर गड़ जाती थीं और सरकारी बेंचों पर बैठे प्रधानमंत्राी सहित सभी मंत्रिगण के चेहरों पर एक अजीब-सी व्यग्रता उभर आती थी। मधुजी का सदन में आना ऐसा होता था जैसे रोम के महाप्रांगण में बब्बर शेर का प्रवेश करना।

मधु लिमये जी के बारे में पढ़ने पर मालूम होता है कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में वो भारत को जोड़े रखने के लिए कए अखिल भारतीय पार्टी का होना नितांत आवश्यक मानते थे । एक पार्टी विशेष की राजनीति को लोकतंत्र के लिए खतरा मानते थे। यही वजह था कि उस समय जब कांग्रेस का कोई ठोस विकल्प उभर नहीं रहा था तो वह इस बात को लेकर काफी परेशान रहा करते थे।

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