सायराबानो और तीन तलाक की पीड़ित महिलाएं 2014 में हमारी सरकार के आने से पहले 2012 और 2013 में ही सुप्रीम कोर्ट जा चुकी थीं. उन्होंने तीन तलाक, निकाह-ए-हलाला और बहु-विवाह को चुनौती दी. कांग्रेस पार्टी की सरकार ने कोर्ट में कोई जवाब नहीं दिया. मेरे संज्ञान में मामला आया तो मैं प्रधानमंत्री के पास गया. उन्होंने साफ कहा ‘‘जाओ, तीन तलाक की पीड़ित बेटियों के साथ खड़े हो जाओ.’’ हमने सुप्रीम कोर्ट में विस्तार से जवाब दिया. निर्णय हो गया. हमें लगता था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो गया, अब हमें कुछ करने की जरूरत नहीं है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि हम एक फॉर्मेट बनाएंगे और लोगों को बताएंगे कि आप इस तरह तीन तलाक मत दीजिए. हर निकाह में इसे बताया जाएगा. लेकिन जनता को जागरूक करना तो दूर, वे तीन तलाक के फैसले के खिलाफ खड़े हो गए और तीन तलाक बदस्तूर चलता रहा. बोर्ड ने पीड़ित महिलाओं से कहा कि जाओ अदालत में इस पर कंटेम्प्ट फाइल करो.
2017 के बाद से लगभग 475 मामले हमारी जानकारी में आए. 300 से ज्यादा मामले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आए. सितंबर 2018 में ऑर्डिनेंस लाने के बाद भी 101 मामले आए. जो मामले रिपोर्ट नहीं हुए वह अलग हैं. ऐसे में हमारे सामने सवाल यह था कि तीन तलाक पीड़ित बेटियों को कैसे न्याय दिलाया जाए. वह पुलिस के पास जातीं तो जवाब मिलता कि हमारे पास इसके लिए पावर नहीं है. वह भी मामला तभी दर्ज कर सकती है जब कोई अपराध हुआ हो. सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को निरस्त किया लेकिन उसे अपराध तो नहीं बनाया था. मुझे लगता है कि माननीय अदालत ने भी यह नहीं सोचा होगा कि इसे निरस्त करने के बाद भी यह धड़ल्ले से चलेगा. तो हमें आगे आना पड़ा.
इस पर कुछ सही सुझाव आए, समझौते और जमानत की गुंजाइश को लेकर. हमने इसके लिए प्रावधान किया. क्योंकि इसमें पुलिस की भूमिका कम है और मामला पति-पत्नी के बीच का है इसलिए ऐसा किया गया. अब कोर्ट पति से पूछेगा तीन तलाक दिया है? अगर नहीं तो पत्नी को बाइज्जत ले जाओ और इसकी देखभाल करो और अगर दिया है तो अंदर जाओ. तीन तलाक अब गैरकानूनी है इसलिए अब कोई इसे दे नहीं सकता. फिर भी अगर कोई करता है तो अपराध करता है. कहा गया कि एफआईआर कराने के लिए इसका दुरुपयोग किया जा सकता है. उसमें भी सुधार किया गया कि मामला केवल महिला या रिश्तेदारों की शिकायत पर ही दर्ज होगा. हमारे पास जो भी सार्थक सुझाव आए उसे हमने माना. लेकिन दोनों सदनों में कहा गया कि तलाक तो गलत है परंतु इसे आपराधिक मत बनाइए. मतलब यही था कि तीन तलाक तो गलत है लेकिन इसे चलने दिया जाए. क्योंकि उन पर वोटबैंक हावी था. यह वही कांग्रेस है जिसने कभी आजादी के आंदोलन के दौरान कम्युनल रिप्रेजेंटेशन का विरोध किया था.
कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने सदन में यह तर्क दिया कि अगर पति जेल चला जाएगा तो पत्नी और बच्चों की परवरिश कौन करेगा. हिंदू, मुस्लिम और बाकी सभी पर लागू दहेज कानून को नॉनबेलेबल बनाते समय यह नहीं सोचा गया कि पति जेल जाएगा तो परिवार की परवरिश कौन करेगा. इसी तरह सभी पर लागू घरेलू हिंसा कानून में भी तीन साल की सजा गैरजमानती है. इसलिए यह तर्क ही बेबुनियाद था. मुझे कहना पड़ा कि कांग्रेस ने 1984 में 400 सीट जीती थी.
लेकिन उसके बाद 1986 में ‘शाहबानो’ किया और आज 2019 है. तब से अब तक कांग्रेस की सियासत एक ही है. यही वजह है कि कांग्रेस 400 से घटकर आज 52 पर आ गई है. इससे पहले 44 पर थी. इस बीच लोकसभा के 9 चुनाव हुए लेकिन एक बार भी उसे बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस ने पहली बार लोकसभा में समर्थन किया. दूसरी बहस में वॉकआउट कर गए. तीसरी बहस में इसके विरोध में खड़े हो गए. इसके पीछे वोट की राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं था. 1986 से 2019 में देश वहीं है लेकिन दो बड़े अंतर हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जो दृढ़ प्रतिज्ञ हैं. दूसरा, शाहबानो अकेली थी लेकिन आज सैकड़ों खवातीनें खड़ी हैं. जिस तरह इस पर देश में उत्साह का माहौल है वह भारत में बदलाव का सूचक है.
हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हमें मुसलमानों का कम वोट मिलता है लेकिन हम सत्ता में आते हैं तो उनकी पूरी चिंता करते हैं. हमारे विकास के हर आयाम उजाला, उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास- हर योजना में उनकी चिंता करते हैं. जहां तक मुआवजे का सवाल है इन मामलों में पहले से तय मानक लागू होंगे. यह रिक्शेवाले, ट्रक ड्राइवर, डॉक्टर, इंजीनियर या बिजनेसमैन के लिए अलग- अलग होंगे. यह मुस्लिम समाज में रिफॉर्म की पहली बड़ी शुरुआत है. अगर शरिया के हिसाब से चलने वाले 22 से अधिक इस्लामिक देशों में बेटियों और महिलाओं के लिए इसे लाया गया है तो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में क्यों नहीं. हम इस देश के मुसलमानों और बेटियों को हिंदुस्तान का अभिन्न अंग मानते हैं. हम समाज के हर वर्ग में रिफॉर्म चाहते हैं, इस बदलाव की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता. बिल के पास होने के बाद जब मैं संसद से अपने घर पहुंचा तो सायराबानो और इशरतजहां सहित बड़ी संख्या में महिलाएं आई थीं. उनकी आंखों में एक नूर और नई आशा थी. मैं उनकी हिम्मत को सलाम करता हूं कि वह तमाम जिल्लत के बावजूद खड़ी रहीं.
(रविशंकर प्रसाद भारत के कानून, टेलीकॉम एवं आईटी मंत्री हैं. लेख राष्ट्रीय संपादक हरीश गुप्ता से बातचीत पर आधारित है.)