Lok Sabha Elections 2024: हालांकि महाराष्ट्र के लोकसभा चुनाव को लेकर सामने आ रहे सर्वेक्षणों में किसी ने भी महागठबंधन की सीटों को 40 के आंकड़े के पार नहीं दिखाया है, मगर शिवसेना (शिंदे गुट), भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट) की ओर से राज्य में 42 से अधिक सीटों को जीतने का दावा हर मौके पर किया जा रहा है. यदि वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के आम चुनावों की स्थितियों को देखा जाए तो तत्कालीन भाजपा-शिवसेना गठबंधन की जीत के समीकरण अलग थे और दोनों ने दोहरी ताकत से अपने सर्वोच्च लक्ष्य को हासिल किया था, जो अब दलों में फूट के बाद साफ कमजोर हो चुका है. इसके बावजूद राष्ट्रीय मुद्दों के सहारे जीत का दावा कितना भी मजबूत बताया जाए, लेकिन जिस तरह महाराष्ट्र में क्षेत्रीय चिंताएं सिर उठा रही हैं, उनसे ‘जादुई आंकड़े’ के विश्वास का ठोस आधार तैयार होता नजर नहीं आ रहा है. बार-बार यह कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है.
इस लिहाज से मोदी सरकार के दस साल के कामकाज पर केवल मुहर लगना बाकी है. यदि स्थितियां ऐसी ही हैं तो पिछले लोकसभा चुनाव में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) का एक और राकांपा समर्थित एक निर्दलीय सांसद कैसे जीता था? दोनों ने स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा था और जीता भी था.
दोनों के अलावा पांच सीटें कांग्रेस और राकांपा ने जीतीं. आश्चर्यजनक रूप से वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सीटों में कोई अंतर नहीं आया. एक उलटफेर में शिवसेना को औरंगाबाद लोकसभा सीट से जरूर हाथ धोना पड़ा था. यूं देखा जाए तो वर्ष 2014 का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया, जबकि 2019 का चुनाव मोदी सरकार की उपलब्धियों के आधार पर लड़ा गया. तब राजनीतिक समीकरण भी अधिक नहीं बदलने के बावजूद एक सीट की भी बढ़ोत्तरी नहीं हो पाई थी और शिवसेना ने तो चार बार से लगातार जीती औरंगाबाद सीट तक गंवा दी थी.
सात सीटों पर विपक्ष की जीत ने साफ किया कि राज्य में हवा एक तरफ ही नहीं चली. इसमें यह भी साफ हुआ कि केंद्र की फ्लैगशिप योजनाएं स्वच्छ भारत अभियान, हर घर शौचालय, उज्ज्वला गैस योजना का राज्य में अधिक असर नहीं पड़ा. इसका कारण भी साफ ही था.
महाराष्ट्र में अन्य राज्यों की तुलना में शहरी क्षेत्र अधिक और साक्षरता ज्यादा होने से शौचालय और रसोई गैस को लेकर जनमानस में जागरूकता पहले से ही अधिक थी. इसलिए इन योजनाओं का प्रभाव जिस तरह हिंदी भाषी राज्यों पर हुआ, उस तरह का महाराष्ट्र में नहीं हुआ. मगर स्थानीय समीकरण और कुछ राष्ट्रीय कारणों ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन का विजयी आंकड़ा बनाए रखा.
इसकी एक बड़ी वजह तत्कालीन परिस्थितियों में कोई बड़ा असंतोष नहीं होना भी थी. वर्तमान परिदृश्य में आरक्षण के आंदोलनों से लेकर किसानों की समस्याओं तक चिंताएं आम आदमी के मन में घर बना चुकी हैं. राज्य सरकार मराठा आरक्षण आंदोलन को शांत मान रही है. किंतु पिछले छह माह में उसने ग्रामीण अंचलों में व्यापक विस्तार किया है.
जिससे मराठवाड़ा, अहमदनगर, पश्चिम महाराष्ट्र के इलाकों में समाज का विभाजन साफ झलक रहा है. दूसरी ओर इसी आंदोलन के खिलाफ अन्य पिछड़ा वर्ग की आवाज भी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है, जो अपनी रेखा खुद खींच रही है. इनके साथ ही धनगर समाज की मांग, वंजारी समाज का अपना दु:ख किसी से छिपा नहीं है.
किसानों की जहां तक बात की जाए तो कपास से लेकर सोयाबीन तक और प्याज से लेकर गन्ने तक के भावों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने या बनाए रखने पर भी मतभेद हैं. पहले टमाटर और अब लहसुन भी अपना रंग दिखा रहा है. दामों का उतार-चढ़ाव जहां किसानों की परेशानी है तो ग्राहकों के लिए महंगाई की मार है.
यदि ये सभी आधारभूत चिंताएं सिर उठाती हैं तो अवश्य ही ये चुनाव में चिंता का कारण भी बन सकती हैं. आगामी चुनाव को राष्ट्रीय बता कर राम मंदिर से लेकर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाना और ‘वंदे भारत’ जैसी आधुनिक रेलगाड़ियों को चलाने से लेकर चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव तक पहुंचना एक चुनावी रणनीति है.
मगर महाराष्ट्र में जहां शहरी भाग अधिक होने के बावजूद मतदान ग्रामीण भाग से ज्यादा होता हो, वहां क्षेत्रीय और स्थानीय समस्याओं का निराकरण किए बिना कैसे मतदाता का मन जीता जा सकता है? दलित समाज के प्रभाव वाले इलाके मराठवाड़ा, विदर्भ और सोलापुर परिक्षेत्र में मंदिर के नाम पर मतों को एकतरफा कैसे माना जा सकता है.
इसी तरह की स्थितियां औरंगाबाद, अकोला, नांदेड़, सोलापुर जैसे क्षेत्रों की भी हैं, जहां पर मुस्लिमों की संख्या अच्छी खासी है. इसके साथ भाजपा और कांग्रेस के अलावा शिवसेना तथा राकांपा की फूट है, जो मत विभाजन के लिए पर्याप्त है. इस स्थिति में चुनाव में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय मुद्दों का सहारा तो लिया जा सकता है, लेकिन जमीनी समस्याओं और चिंताओं से किनारा नहीं किया जा सकता.
आधुनिक संचार तंत्र के दौर में राष्ट्रीय समस्या का स्थानीय स्तर पर पहुंचना और स्थानीय स्तर की परेशानी के राष्ट्रीय स्तर की बनने में देर नहीं लगती है. इसलिए 42 से अधिक सीटें जीतने का जादुई आंकड़ा मन में तो रखा जा सकता है, लेकिन जुबान पर लाने के लिए वास्तविकता के धरातल से गुजरना होगा.
चुनाव को लेकर तैयारियां कितनी भी मजबूत क्यों न हों, मतदाता के मन की बात को समझना आवश्यक है. बीते एक-डेढ़ साल में हालात जिस तरह बदले हैं, वे किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनावी लड़ाई को आसान नहीं दिखा पा रहे हैं. दरअसल चुनावी समर का जमीनी सच इतना भी सहज नहीं है, जितना समझाया जा रहा है.