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बांसुरी पर चलती उंगलियां मेरी नहीं, उस 'हरि' की

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: March 18, 2023 10:46 AM

स्व. ज्योत्सना दर्डा की स्मृति में लोकमत पत्रसमूह द्वारा स्थापित 'सुर ज्योत्सना राष्ट्रीय संगीत पुरस्कार' का दसवां संस्करण 21 मार्च, मंगलवार को मुंबई में आयोजित किया जाएगा.

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ठळक मुद्देपं. हरिप्रसाद चौरसिया को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया जाएगापढ़ें पं. हरिप्रसाद चौरसिया का विशेष लेख

हर साल राष्ट्रीय स्तर पर उभरती संगीत प्रतिभाओं की खोज करने वाले प्रतिष्ठित सुर ज्योत्सना मंच द्वारा युवा गायक-गायिकाओं का सम्मान किया जाता है. स्व. ज्योत्सना दर्डा की स्मृति में लोकमत पत्रसमूह द्वारा स्थापित 'सुर ज्योत्सना राष्ट्रीय संगीत पुरस्कार' का दसवां संस्करण 21 मार्च, मंगलवार को मुंबई में आयोजित किया जाएगा. इस विशेष समारोह में प्रसिद्ध बांसुरी वादक पद्म विभूषण पं. हरिप्रसाद चौरसिया को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा...इस अवसर पर पढ़िए पं. हरिप्रसाद चौरसिया का ये विशेष लेख-

मैं अगर आपसे पूछूं कि कुश्ती के मर्दाना अखाड़े में मिट्टी पुते नंगे बदन दंड-बैठक पेलने और कृष्ण कन्हैया के किसी छोटे-से मंदिर में अंधेरे गलियारे में बैठकर बांसुरी पर निकलने वाली बैरागी भैरव के विरक्त स्वरों की मर्मस्पर्शी तान का आपस में क्या संबंध है-तो आप मुझ पर हंसेंगे. लेकिन, मेरे लिए यह संबंध वास्तविक है. कुश्ती का मर्दाना अखाड़ा और बांसुरी के कंपित होते मधुर स्वर- मैंने इसी जन्म में दोनों का अनुभव किया है. वास्तविकता की दो चरम सीमाओं के बीचोंबीच में जीवन खड़ा है. 

वह जीवन जो बचपन की विषम परिस्थितियोंवश अखाड़े की मिट्टी में धकेल दिया गया, पिता के भय से सरकारी फाइलों के गट्ठरों में दबा हुआ, अवसर पाते ही बांसुरी के आकर्षणवश गांव-गांव भटकने वाला और दुनिया भर के प्रशंसकों से तालियां बटोरते हुए अनजाने में अपनी आंखें पोंछता है. पिता के कठोर अनुशासन के कारण जिस समय मधुर स्वरों का अकाल मेरे जीवन में कड़वाहट घोल रहा था, उसी समय हमारे पड़ोस में रहने वाले एक बहुत अच्छे गायक राजाराम ने मेरे हाथों में बांसुरी थमा दी, और मानो मेरा पूरा जीवन ही बदल गया. 

इन स्वरों की उंगली थामकर अपने जीवन के मेले की भटकन को अब जब याद करता हूं तो अक्सर मन भर आता है. कितना रंगीन था मेला और उसमें शामिल लोग. अलबेले और मनहर! मदन मोहन, जो रेडियो पर मेरी बांसुरी सुनकर मुझे तलाशते हुए स्टूडियो में पहुंचे, फिर एस.डी. बर्मन, नौशाद, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल...कितने नाम...कितना काम, साठ के दशक में मुंबई सिनेमा इंडस्ट्री ने मुझे बेशुमार पैसा दिया, लेकिन फिर भी दिल में कोई फांस थी जो चुभती रहती थी, रिकॉर्डिंग के लिए एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो में मेरी भागदौड़ को देखकर शिवजी यानी शिवकुमार शर्मा ने सही समय पर सटीक प्रश्न पूछा, 'इतनी भागदौड़ के बीच अपने रियाज और अपनी प्रगति के बारे में कब सोचते हैं?'

इस प्रश्न से जो बेचैनी हुई और आंखों से जो आंसू छलके, उन्हें मैं आज तक नहीं भूला हूं. अपना गांव, अपना परिवार सबकुछ पीछे छोड़ते हुए, हाथ में बांसुरी थामकर आखिर मैं बेसुध किस मंजिल की ओर भाग रहा था? पैसों के लिए? या अमुक-तमुक संगीतकार का साथीदार बनने के लिए? एक गाने में यमन की दो स्वरलहरियां, दूसरे में भैरव के दो आलाप, ऐसे ही टुकड़े अगर जगह-जगह फेंकने थे, तो जीवन को नष्ट करने की जरूरत नहीं थी.दर्द की नब्ज पर उंगली पड़ते ही मेरे जीवन में आईं अन्नपूर्णा देवी, मेरी गुरु. 

उनका शिष्य बनने के लिए मुझे तीन सालों का संघर्ष करना पड़ा. और फिर मेरी शिक्षा आरंभ हुई. अन्नपूर्णा देवी की एक ही शर्त थी, पट्टी कोरी करनी होगी. पिछले सारे संस्कार भूलने होंगे. पं. भोलानाथ जी से सीखा हुआ यमन नए ढंग से सीखना शुरू किया. एक यमन ने ही मुझे सिखा दिया कि रागों में स्वरों की कसावट किस तरह की जाती है. मेहनत से जी नहीं चुराना है, स्वरों की लगावट में कोई कमी-बेशी नहीं, और खास बात यह कि मंजिल पर पहुंचने की बिलकुल भी हड़बड़ी नहीं करनी थी. स्वरों की प्रस्तुति एकदम स्पष्ट, लेकिन उनकी बुनावट सुंदर और कलात्मक ढंग से की जाए.

संगीत को देखने का पारंपरिक और गहन दृष्टिकोण मुझे मेरी मां से मिला. मेलोडी और हार्मनी चित्रपट संगीत से मिली, लेकिन अन्नपूर्णा जी ने मेरे संगीत को पोषित किया, मुझे बैठकों के लायक बनाया, एक महफिल के कलाकार के रूप में मुझसे मेरी पहचान कराई और दुनिया के सामने भी मुझे इसी रूप में प्रस्तुत किया. कालांतर में मेरी इस बांसुरी ने संगीत की शास्त्रीयता से छेड़छाड़ किए बिना अनेक प्रयोग किए, इसे शिवजी के संतूर का साथ मिला. मेरी बांसुरी ने किशोरीताई (आमोणकर) जैसी शीर्ष प्रतिभा के साथ जुगलबंदी की.

वैश्विक संगीत की धारा का प्रवाह जब भारतीय शास्त्रीय संगीत से टकराया, तब मेरी बांसुरी ने भी उसका सामना किया. दुनिया भर की विविध संस्कृतियां और इसमें रचे-बसे अपनी मस्ती में संगीत के साथ प्रयोग करने वाले कलाकार भी इस बांसुरी पर मोहित थे. किसी भी संगीत को जब विस्तृत खुला आसमान दिखाई देता है, उस आसमान की खुली हवा में सांस लेने का मौका पाता है, तो उससे जो धुनें निकलती हैं, वे सारी दुनिया की, उसमें मौजूद लोगों की धुनें होती हैं. मेरी बांसुरी को ऐसी उन्मुक्त हवाओं में सांस लेने का अवसर मिला, यह उसका भाग्य. 

और बांसुरी का सौभाग्य यह भी कि उसका संबंध श्रीकृष्ण से, उनकी सांसों से जुड़ा. मैं यानी हरि, जब बांसुरी को अपने होठों पर रखता हूं तो नितांत निर्मल और शुद्ध अंत:करण से इसमें से गुजरने वाली हर सांस, उस पर फिरने वाली हर उंगली इस हरि की नहीं उस हरि की होती हैं. क्योंकि मेरी हर सांस मेरे लिए उनका उपहार है. जब इस छोटे-से खोखले लकड़ी के वाद्य से फूंक गुजरने लगती है तो उससे उभरने वाले स्वर मोरपंखों की तरह नीले आसमान की ओर तैरने लगते हैं.

(लोकमत दीपोत्सव, 2015 में प्रकाशित लेख के संकलित और संपादित अंश)

साक्षात्कार और शब्दांकन : वंदना अत्रे

टॅग्स :Hari Prasad ChaurasiaIndia
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