बिना किसी लहर के चल रहे आम चुनावों ने अब जबकि आधा सफर तय कर लिया है, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के भीतर के व्यापक मतभेद व कमजोरियां उजागर होती जा रही हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के दो लगातार कार्यकाल और सावधानीपूर्वक तैयार किए गए प्रभावशाली विज्ञापन अभियान के बाद, जिसमें मोदीजी की एक विशाल छवि पेश की गई, यह स्वाभाविक था कि देश भर में मोदी लहर चलेगी लेकिन 285 निर्वाचन क्षेत्रों में तीन चरणों के मतदान तक ऐसा नहीं हुआ है।
असाधारण लंबी मतदान प्रक्रिया के शेष चार चरणों में भी कोई लहर पैदा होने की संभावना नहीं है। बहरहाल, सत्तारूढ़ भाजपा किसी भी तरह से चुनाव जीतने के लिए कई हथकंडे अपना रही है, जबकि उसे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों के बारे में अधिक बात करना अपेक्षित था।
चूंकि भाजपा अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश नीति, कानून-व्यवस्था से लेकर ग्रामीण और शहरी विकास (क्या किसी ने स्मार्ट सिटी के बारे में सुना है?) और कृषि से लेकर नौकरियों में आरक्षण तक पर अपना ढिंढोरा पीट रही थी, राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने मान लिया था कि वह ‘विकसित भारत’ पर ध्यान केंद्रित करेगी लेकिन ‘मंगलसूत्र’ और एक राज्यपाल व एक सांसद से जुड़े सेक्स स्कैंडलों के चर्चा में हावी हो जाने से यह अभियान घृणित रूप से निचले स्तर पर पहुंच गया।
सबसे पुरानी पार्टी से व्यवस्थित ढंग से हो रहे दल-बदल से लोकतंत्र के हिमायती दुःखी हैं. न केवल वे लोग पार्टी छोड़कर चले गए जिन्हें कोई पद या सुविधाएं नहीं मिल रही थीं, बल्कि मौजूदा विधायक, महापौर, पदाधिकारी और उम्मीदवार भी भगवा दल में शामिल होने के लिए डूबते जहाज से कूद गए हैं। भाजपा के प्रति उनका अचानक प्रेम रहस्यमय है। उनमें से कुछ ने सुनियोजित ढंग से जनवरी के राम मंदिर उद्घाटन में शामिल नहीं होने के लिए अपनी पार्टी को दोषी ठहराया है। चाहते तो वे जनवरी में ही पद छोड़ सकते थे। अब क्यों? और यह भाजपा की तिकड़मों की ओर इशारा करता है।
सूरत, खजुराहो या पुरी के मामले थोड़े अलग हो सकते हैं, जहां विपक्षी उम्मीदवारों के नाम वापस लेने के बाद भाजपा की चुनावी राह आसान हो गई। हालांकि, ऐसा पहले कभी नहीं सुना गया था. किंतु इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात इंदौर के कांग्रेस उम्मीदवार का अचानक दौड़ से हट जाना रही। प्रत्याशी अक्षय बम पिछले कई वर्षों से चुनाव लड़ने की दौड़ में हैं।
वह एक धनी परिवार से हैं जो हमेशा कांग्रेस की विचारधारा में विश्वास रखता आया है। उनका ‘आत्मसमर्पण’ कांग्रेस संगठन की बहुत खराब छवि पेश करता है। यदि उन पर कुछ बाहुबली भाजपा नेताओं द्वारा दबाव डाला गया था, जो लंबे समय से धमकाने की रणनीति के लिए जाने जाते थे- ऐसा कहा जाता था कि बम को एक पुराने आपराधिक मामले में फंसाया गया- तो यह भी उतना ही सच है कि मध्य प्रदेश के कांग्रेस नेताओं ने उन्हें अकेला छोड़ दिया था जब वे गंभीर संकट में थे। बम की पार्टी एक हतोत्साहित, गुट-ग्रस्त, संसाधन-विहीन इकाई है जिसका मध्य प्रदेश और अन्य जगहों पर कोई मजबूत नेतृत्व नहीं है।
इंदौर के भाजपा नेताओं ने जिस अनैतिक तरीके से युवा कांग्रेस प्रत्याशी के साथ व्यवहार किया और उन्हें भाजपा में शामिल होने के लिए मजबूर किया, उसने पुराने और सिद्धांतवादी भाजपाइयों को अंदर तक हिला दिया है। ये वही अच्छे लोग हैं जिनकी वजह से भाजपा ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ कहलाती थी। राजनीति में अपने सिद्धांतों और मूल्यों के लिए जानी जाने वाली, पुराने विचारों वाली सम्मानित भाजपा नेता सुमित्रा महाजन ने भाजपा कार्यकर्ताओं और सम्मानित नागरिकों की दबी हुई भावनाओं (नाराजगी) को उजागर कर दिया है।
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष ने पीसी सेठी, पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री या एक स्थानीय बाहुबली महेश जोशी जैसे कांग्रेस के दिग्गजों के खिलाफ इंदौर चुनाव जीता था व कीर्तिमान रचा था लेकिन उन्होंने या भाजपा ने कभी भी विपक्ष को कुचलने के लिए गंदी चालें नहीं अपनाईं। क्या ‘नई भाजपा’ के भीतर इंदौर की घटना कभी गूंजेगी? क्या मोदी-शाह उन्हें आसानी से माफ कर देंगे, खासकर तब जब भाजपा सांसद शंकर लालवानी अपनी सीट आसानी से बरकरार रखने में सक्षम थे? खैर, भाजपा से ज्यादा मुझे कांग्रेस की चिंता है। गांधी-खड़गे की पार्टी का कमजोर होना व बिखरना चिंताजनक है क्योंकि एक मजबूत लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष अत्यधिक जरूरी है।
‘इंडिया’ गठबंधन का नेतृत्व करने वाले दल को अपना घर अभेद्य रखना चाहिए। इस बात पर आम राय है कि सत्तारूढ़ दल तीसरा कार्यकाल जीतने के लिए कांग्रेस पर अनुचित ढंग से हमले कर रहा है, लेकिन अगर संगठन को पहले ही अच्छी तरह से तैयार रखा गया होता तो कांग्रेस हमलों का सामना कर सकती थी। मैंने पहले भी लिखा है कि कांग्रेस ने शायद ही कभी अपने कार्यकर्ताओं को ऊर्जावान बनाने और पार्टी में नए खून का संचार करने की परवाह की है, ताकि वह धन-बल समर्थित शक्तिशाली भाजपा से मुकाबला कर सकें।
पार्टी को मजबूत करने की कवायद 2019 के तुरंत बाद शुरू हो जानी चाहिए थी। कांग्रेस दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने में विफल रही है और कार्यकर्ता बेहद निराश हो गए हैं। भाजपा के ‘सम्मोहन’ के अलावा कांग्रेस छोड़ने का यह प्रमुख कारण है। वर्ष 2020 में कांग्रेस छोड़ने वाले नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यह तंज कर कांग्रेस की स्थिति का सटीक वर्णन किया है कि ‘(कांग्रेस) पार्टी खुद ही को दीमक की तरह चाट रही है’। क्या फिर भी यह पार्टी कुछ गुल खिलाएगी?