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ब्लॉग: आदर्श लोकतंत्र के तकाजे का रखें ध्यान

By अश्वनी कुमार | Published: April 16, 2024 10:28 AM

देश में आम चुनावों के दौरान प्रमुख विपक्षी नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारियां भारत के लोकतंत्र की गर्वित पहचान तो नहीं हो सकती। इन गिरफ्तारियों के पीछे केंद्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के आरोप चिंताजनक हैं।

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ठळक मुद्देआम चुनावों के दौरान प्रमुख विपक्षी नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारियां चिंताजनक हैइन गिरफ्तारियों के पीछे केंद्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग की मंशा दिखाई दे रही हैनौकरशाही पर अपने व्यापक अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप पहले इतने तीखे न थे

देश में आम चुनावों के दौरान प्रमुख विपक्षी नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारियां भारत के लोकतंत्र की गर्वित पहचान तो नहीं हो सकती। इन गिरफ्तारियों के पीछे केंद्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के आरोप चिंताजनक हैं। सरकारी एजेंसियों द्वारा सत्ता विरोधियों पर राजनीतिक दबाव बनाना, जांच एजेंसियों का पक्षपाती रवैया, नागरिकों के मूलभूत मानवीय अधिकारों का हनन और संवैधानिक संस्थाओं की उदासीनता से जुड़े सवाल उठ रहे हैं।

दार्शनिकों का यह मानना है और इतिहास की गवाही भी कि अनर्गल राजनीतिक व प्रशासनिक शक्ति का दुरुपयोग ऐतिहासिक सच्चाई है जिसकी पुष्टि समय-समय पर, हम अपने देश में देख चुके हैं। सरकारें चाहे किसी भी दल की हों। वर्तमान में महाराष्ट्र, बंगाल, आंध्र प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि राज्यों में भी सत्ताधारी पार्टियों ने राजनीतिक विरोधियों पर कानूनी शिकंजा कसने के प्रयास किए हैं।

नौकरशाही पर अपने व्यापक अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप पहले इतने तीखे न थे। जिनसे न्याय की अपेक्षा है, वही आज कठघरे में हैं। मशहूर शायर फैज-अहमद-फैज ने ऐसी व्यथा का जोरदार वर्णन इन पंक्तियों में किया है।

‘बने हैं अहल ए हवस मुद्दई भी, मुंसिफ भी,किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें’

बिना आरोप सिद्ध हुए पीएमएलए जैसे कठोर कानून के तहत लंबे समय तक आरोपियों को हिरासत में रखना लोकतांत्रिक और स्वतंत्रतावादी संविधान के दर्शन के अनुरूप तो नहीं है। यद्यपि कानून की नजर में सभी समान हैं और राजनीतिक नेताओं से उच्च आदर्शों एवं कानून का पालन करने की अपेक्षा है। देश में ऐसी भावना नहीं बननी चाहिए कि प्रमुख विपक्षी नेताओं पर अपराध के आरोप राजनीति से प्रेरित हैं।

खासतौर पर जब देश की न्याय प्रक्रिया अपने आप में एक बड़ी सजा है और सदा न्याय संगत नहीं होती। इस प्रक्रिया में न केवल आरोपी पिसता है, परंतु उसके समस्त परिवार का कई तरह से उत्पीड़न होता है, यहां तक कि बच्चों पर भी तंज कसे जाते हैं। आरोपी अपने आपको शून्य महसूस करने लगता है और टूट जाता है। क्या यह आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहचान या राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की कीमत हो सकते हैं?

कानूनी दांवपेंच बेगुनाहों को भी अपराधी साबित कर देते हैं। अमेरिका के एक प्रसिद्ध वकील एफली बेली अपनी किताब ‘द डिफेंस नेवर रेस्ट्‌स’ में लिखते हैं कि कानूनी प्रक्रिया की चक्की में जब पिसाई होती है तो अभियुक्त की बेगुनाही अप्रासंगिक हो जाती है। इस सच्चाई को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक निर्णय (गंगाबाई बनाम संभाजी, 2008), में दोहराते हुए, कानूनी प्रक्रिया के भंवर में न्याय की हत्या से सचेत किया है।

देशवासियों की अपेक्षा है कि पीएमएलए जैसे कठोर कानून के प्रावधानों का पालन करना, संविधान के अनुच्छेद 21, जो प्रत्येक व्यक्ति की आजादी एवं सम्मान के अधिकार को मान्यता देता है, की मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा के भीतर होनी चाहिए। राजनीतिकों के विरुद्ध प्रत्येक मुकदमा मीडिया ट्रायल का रूप धारण कर लेता है, जिसके कारण जांच से लेकर अदालत के अंतिम निर्णय तक आरोपी के सम्मान एवं आजादी का हनन होता रहता है।

राजनीतिक नैतिकता, संवैधानिक मर्यादा, संवेदनशील न्यायिक प्रक्रिया एवं राष्ट्रीय गरिमा के बीच अभिन्न संबंध है। इनका तकाजा है कि हर व्यक्ति को कानून के मुताबिक सौम्य न्याय मिले। यही एक आदर्श लोकतंत्र की पहचान है। इतिहास साक्षी है कि अन्याय का एहसास सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बनता है। इस संदर्भ में राजनीतिक दलों को स्वीकार करना होगा कि विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा और अत्याचारिक रवैया कभी न मिटने वाली व्यक्तिगत शत्रुता और चुभन को जन्म देते हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को दूषित करते हैं।

आज देश में तनाव का वातावरण है, जिसकी जवाबदेही किसी एक दल अथवा व्यक्ति की नहीं. कुछ नेता, जो आज अपने आप को पीड़ित महसूस कर रहे हैं, उन्होंने भी अतीत में राजनीतिक मर्यादाओं को नहीं निभाया। अतीत की गलतियों की झलक आज नजर आ रही है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा देश में बिखराव और तनाव का कारण न बने, इसकी जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों पर है।

देश में सौहार्द्र सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक मर्यादाओं की लक्ष्मण-रेखा का आदर करना अनिवार्य है। इससे पहले कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्याय के एहसास के कारण देशवासियों के सब्र का पैमाना छलक जाए, हमको सत्ता और राजनीति की मर्यादाओं को पुनः परखना होगा। जहां तक राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रश्न है, इसका स्थाई समाधान व्यापक चुनावी सुधार है, जिसके द्वारा चुनावी प्रक्रिया में धन और बल के दुरुपयोग को समाप्त किया जा सके।

सुप्रीम कोर्ट का चुनावी बांड संबंधी फैसला, जिसको आमतौर पर सराहा गया है, का एक नतीजा यह भी है कि चुनावों में एक बार फिर ‘कैश’ और काले धन का बोलबाला होगा। ऐसी स्थिति से जल्द जूझना जरूरी है, जिसके लिए अविलंब आम राय बनाने का दायित्व भी राजनीतिक दलों पर है। आदर्श लोकतंत्र के प्रति आशावादी राष्ट्रीय एहसास को पहनावा देने का समय आ गया है, जिसके लिए द्वेष और घृणा युक्त राजनीतिक व्यवहार सभी को मिलकर समाप्त करना होगा। इसके लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनता को दबाव बनाना होगा।

राजनीतिक प्रतिशोध मानवीय गरिमा व लोकतांत्रिक आदर्शों के लिए घातक है। जिस देश की आत्मा मानवीय सम्मान, संवाद, सौहार्द्र और स्वतंत्र विचारों द्वारा परिभाषित है, ऐसे देश में किसी भी व्यक्ति के सम्मान और स्वतंत्रता पर प्रहार असहनीय है। हम इतिहास के इस सबक को नहीं भुला सकते कि जंजीरों के हटने और जख्मों के मिटने के बाद भी उनके निशान रह जाते हैं और दर्द व निराशा की यादें खुशी और आशा का पैगाम भी लाती हैं।

इस लेख को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की इन प्रेरणास्रोत पंक्तियों से विराम दे रहा हूं-

“हो तिमिर कितना भी गहरा,हो रोशनी पर लाख पहरा,सूर्य को उगना पड़ेगा,फूल को खिलना पड़ेगा”

टॅग्स :भारतBJPकांग्रेससीबीआईप्रवर्तन निदेशालय
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