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Lord Hanuman: हर मंगलवार सुंदर कांड के इन 15 दोहे का करें पाठ, पवनसुत हरेंगे सारे कष्ट

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: April 30, 2024 6:37 AM

भगवान राम के जीवन परिचय को अवधी में कलमबद्ध करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी की वीरता, पराक्रम और बुद्धिमता को प्रदर्शित करते हुए कुछ इस तरह से वर्णन किया है, जिसका पाठ करने से भक्तों का कल्याण होता है।

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ठळक मुद्देतुलसीदास जी ने सुंदरकांड में हनुमान जी की वीरता, पराक्रम और बुद्धिमता का वर्णन किया हैमान्यता है कि हर मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करने से घर में सुख-संपदा आती हैधार्मिक सिद्धांतों के अनुसार सुंदर कांड के पाठ से कई प्रकार के संकटों से मुक्ति मिलती है

Lord Hanuman: भगवान राम के जीवन परिचय को अवधी में कलमबद्ध करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी की वीरता, पराक्रम और बुद्धिमता को प्रदर्शित करते हुए कुछ इस तरह से वर्णन किया है, जिसका पाठ करने भक्तों का कल्याण होता है।

मान्यता है कि हर मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करने से घर में सुख-संपदा आती है। धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार सुंदर कांड के पाठ से कई प्रकार के संकटों और गृह क्लेश से मुक्ति मिलती है।

सुंदरकांड रामायण की उन सिद्ध चौपाईयों का संकलन माना जाता है. जिसका जप करने से भगवान हनुमान प्रसन्न होते हैं और भक्तों के सारे कष्ट दूर करते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि अगर कोई लगातार सुंदर कांड में वर्णित हनुमान जी को समर्पित दोहे का पाठ करे तो उसे हनुमान जी बुद्धि, शक्ति, साहस, स्वास्थ्य, भाषण में निपुणता, आलस्य से मुक्ति देकर आनंद और संतुष्टि प्रदान करते हैं। 

सुंदर कांड में हनुमान जी को समर्पित दोहे

चौपाईजामवंत के बचन सुहाए।सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।सहि दुख कंद मूल फल खाई॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी।होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥बार-बार रघुबीर सँभारी।तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥

दोहा – 1

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजीकी सुरसा से भेंट

चौपाईजात पवनसुत देवन्ह देखा।जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।सुनत बचन कह पवनकुमारा॥राम काजु करि फिरि मैं आवौं।सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥

तब तव बदन पैठिहउँ आई।सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।तासु दून कपि रूप देखावा॥सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥

दोहा – 2

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंटचौपाईनिसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।करि माया नभु के खग गहई॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥तहाँ जाइ देखी बन सोभा।गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥

हनुमानजी लंका पहुंचेनाना तरु फल फूल सुहाए।खग मृग बृंद देखि मन भाए॥सैल बिसाल देखि एक आगें।ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।कनक कोट कर परम प्रकासा॥

लंका का वर्णन

छंद

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥

दोहा – 3

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी की लंकिनी से भेंट

चौपाई

मसक समान रूप कपि धरी।लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥नाम लंकिनी एक निसिचरी।सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥मुठिका एक महा कपि हनी।रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

पुनि संभारि उठी सो लंका।जोरि पानि कर बिनय ससंका॥जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।तब जानेसु निसिचर संघारे॥तात मोर अति पुन्य बहूता।देखेउँ नयन राम कर दूता॥

दोहा – 4

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी का लंका में प्रवेश 

चौपाई

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।राम कृपा करि चितवा जाही॥अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥

हनुमानजी की लंका में सीताजी की खोजमंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥गयउ दसानन मंदिर माहीं।अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥

सयन किएँ देखा कपि तेही।मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥भवन एक पुनि दीख सुहावा।हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥

दोहा – 5

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥5॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी की विभीषण से भेंट

चौपाई

लंका निसिचर निकर निवासा।इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा।तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।साधु ते होइ न कारज हानी॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥करि प्रणाम पूँछी कुसलाई।बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।मोरें हृदय प्रीति अति होई॥की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।आयहु मोहि करन बड़भागी॥

दोहा – 6

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥6॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं।प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥अब मोहि भा भरोस हनुमंता।बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना।कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥प्रात लेइ जो नाम हमारा।तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

दोहा – 7

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

पुनि सब कथा बिभीषन कही।जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।देखी चहउँ जानकी माता॥

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।बन असोक सीता रह जहवाँ॥

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रणामा।बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥कृस तनु सीस जटा एक बेनी।जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥

दोहा – 8

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामअशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।करइ बिचार करौं का भाई॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।संग नारि बहु किएँ बनावा॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।साम दान भय भेद देखावा॥कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।मंदोदरी आदि सब रानी॥

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।एक बार बिलोकु मम ओरा॥तृन धरि ओट कहति बैदेही।सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥अस मन समुझु कहति जानकी।खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

सठ सूनें हरि आनेहि मोही।अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

दोहा – 9

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामरावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

सीता तैं मम कृत अपमाना।कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी।सुमुखि होति न त जीवन हानी॥

स्याम सरोज दाम सम सुंदर।प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥

चंद्रहास हरु मम परितापं।रघुपति बिरह अनल संजातं॥सीतल निसित बहसि बर धारा।कह सीता हरु मम दुख भारा॥

सुनत बचन पुनि मारन धावा।मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥

मास दिवस महुँ कहा न माना।तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥

दोहा – 10

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥10॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामत्रिजटा का स्वप्न

चौपाई

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।राम चरन रति निपुन बिबेका॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।सीतहि सेइ करहु हित अपना॥

सपनें बानर लंका जारी।जातुधान सेना सब मारी॥खर आरूढ़ नगन दससीसा।मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥नगर फिरी रघुबीर दोहाई।तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥

यह सपना मैं कहउँ पुकारी।होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥तासु बचन सुनि ते सब डरीं।जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

दोहा – 11

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामसीताजी और त्रिजटा का संवाद

चौपाई

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥तजौं देह करु बेगि उपाई।दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥

आनि काठ रचु चिता बनाई।मातु अनल पुनि देहि लगाई॥सत्य करहि मम प्रीति सयानी।सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।अस कहि सो निज भवन सिधारी॥

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥देखिअत प्रगट गगन अंगारा।अवनि न आवत एकउ तारा॥

पावकमय ससि स्रवत न आगी।मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥सुनहि बिनय मम बिटप असोका।सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना।देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥देखि परम बिरहाकुल सीता।सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

दोहा – 12

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥12॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमान सीताजी से मिले

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर।राम नाम अंकित अति सुंदर॥चकित चितव मुदरी पहिचानी।हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

जीति को सकइ अजय रघुराई।माया तें असि रचि नहिं जाई॥सीता मन बिचार कर नाना।मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।कही सो प्रगट होति किन भाई॥तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

राम दूत मैं मातु जानकी।सत्य सपथ करुनानिधान की॥यह मुद्रिका मातु मैं आनी।दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

नर बानरहि संग कहु कैसें।कही कथा भइ संगति जैसें॥

दोहा – 13

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वासजाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया

चौपाई

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।अनुज सहित सुख भवन खरारी॥कोमलचित कृपाल रघुराई।कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

सहज बानि सेवक सुखदायक।कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥कबहुँ नयन मम सीतल ताता।होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

बचनु न आव नयन भरे बारी।अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥देखि परम बिरहाकुल सीता।बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥जनि जननी मानह जियँ ऊना।तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

दोहा – 14

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

श्री राम, जय राम, जय जय रामहनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

चौपाई

कहेउ राम बियोग तव सीता।मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥जे हित रहे करत तेइ पीरा।उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।काहि कहौं यह जान न कोई॥तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥उर आनहु रघुपति प्रभुताई।सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

दोहा – 15

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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