सड़क पर बैठे ये लोग किसी भी मुल्क के हो सकते हैं. हर मुल्क के गरीब की शक्ल ओ सूरत काफी हद तक मिलती जुलती है. कोरोना मज़हब, मुल्क नहीं देखता, बस वो आपकी सेहत देखता है, उससे लड़ पाने की ताकत देखता है। जो हारे उनकी सांसें जकड़ लेता है। हालांकि इससे लड़ते लड़ते हाकिम-सरकारें खुद हांफ रहे हैं, दवा इलाज़ अब तक नहीं है. इस बीच दावे हैं मदद के- इमदाद के, दरियादिली की कई अश्लील तस्वीरें हैं। हम घरों कैद है अपनी जान की ख़ातिर, कोई सड़कों-अस्पतालों में हैं हमारी जान बचाने की ख़ातिर । लेकिन इस तालाबंदी ने रोज़ाना कमाने और खाने वाले करोड़ों लोगों के पेट-झोली खाली है। तालाबंदी है लेकिन पेट पर ताला कैसे लगे वो तो बंदी में दौड़ने लगा है, दिमाग डर में और निवाले मांगता है। सरकार को माई-बाप की जगह लेनी थी लेकिन उसकी आंखें दो है, हाथ भी दो हैं लेकिन उसकी सोच वो भी दो गयी है। उसने नज़र भी बदल ली है और नज़रिया भी । फिलहाल ये तस्वीरें पाकिस्तान की है. महामारी और तालाबंदी में कम से कम सिंध का ये हिंदू परिवार तो यही कहता है। कि बेटा रिक्शा चलाता था, अब सब बंद हैं . भूख ज्यादा भयावह लगती है क्यों उसे पहले भी महसूस जो किया है.ऐसा नहीं कि ये सरकारी नाइंसाफी सिर्फ एक धर्म के लिए हैं. इस मुल्क की सरकार मुंह मोड़ने में कोई भेदभाव नहीं करती . उसने पाकिस्तान में अल्पसंख्यक इसाईयों को भी भूखे पेट छोड़ दिया है. सरकार उनके साथ भी बराबर की नाइंसाफी करती है. इधर जिन पर भूख भारी है वो भी मज़दूर, सरहद पार जिन के दिन कटने भारी हैं वो भी मज़दूर। इधर दिल्ली में सड़कों पर भटक रहा ये परिवार सरकारी वादे पर भरोसा कर स्कूल के गेट पर छत और रोटी की उम्मीद में आया था. लेकिन अब इंतजाम करने वाले कहते हैं कि सब फुल हैं जगह नहीं हैं.फर्क सिर्फ ज़मीन तक़सीम करने वाले कंटीले तारों का हैं, ज़िंदगी उतनी ही मुश्किल इधर भी है उधर भी है. जिसे लोग पाकिस्तान कहते है। ना क़ायदे पे वो चला ना हम । मुल्क अलग, मज़हब अलग है लेकिन मुसीबत एक है भूख । इस वक्त कुछ लोगों निशाने पर मजहब भी है लेकिन खाली पेट-जेब वालों की आवाज़ इतनी उंची कहां कि कि वो हाकिमों के कानों तक पहुंच पाए. फिलहाल अंधेरा है सामने खाली सड़क है लंबी काली रात है, गठरी है, जिंदगी का बोझ है लेकिन जाएं कहां ..पता नहीं.