Lok Sabha Elections 2024: महाराष्ट्र की एक-तिहाई लोकसभा सीटों के लिए मतदान होने के बावजूद राजनीतिक दलों के लिए चुनाव की दिशा और दशा को समझना मुश्किल होता जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और कांग्रेस नेता राहुल गांधी से लेकर पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे तक अपने-अपने उम्मीदवारों के लिए पसीना बहा चुके हैं, लेकिन किसी के चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक दिखाई नहीं दे रही है. एक तरफ जहां चुनावी नीरसता को लेकर मौसम की मार और शादी-ब्याह के गर्म मौसम की बात की जा रही है, तो दूसरी तरफ राजनीति के समीकरणों को लेकर मतदाताओं के बीच बढ़ती अस्पष्टता अदृश्य समस्या बनती जा रही है.राज्य में पांच चरणों में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के मतदान के क्रम में दो चरणों में मतदान हो चुका है.
विदर्भ का चुनाव पूरा हो गया है और मराठवाड़ा में शुरुआत हो चुकी है. अगले चरण में मराठवाड़ा के कुछ स्थानों के साथ दक्षिण और पश्चिम महाराष्ट्र के इलाकों में मतदान होगा, जिसके बाद चौथे-पांचवें चरण में मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र, खान्देश तथा मुंबई की सीटों के लिए मतदान होगा. ध्यान देने योग्य यह है कि सभी भागों में चुनावी मुद्दों से अधिक चर्चा दलों के टूटने और बिखरने की है.
राजनीतिक दल भी गद्दार और वफादार के बीच संघर्ष पैदा कर मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं. मजेदार बात यह है कि जिन दलों और नेताओं को गद्दार कहा जा रहा है, उन्हीं के पास उनके पुराने दलों के असली चुनाव चिह्न हैं. इस स्थिति में मतदाता के समक्ष समस्या यह है कि वह चिह्न के प्रति निष्ठा दिखाए या फिर एकनिष्ठ नेताओं के साथ अपना रिश्ता कायम रखे.
यदि चुनाव चिह्न को देखकर मत डाले जाते हैं तो टूट-फूट की कोई कीमत नहीं रह जाती है और विश्वसनीयता को देखकर वोट डाले जाते हैं तो वोटिंग मशीन पर भ्रम को दूर कर पाना आसान नहीं है. यही कारण है कि पहचान को लेकर पैदा हुई नई स्थिति में चुनाव किसी अन्य मुद्दे पर केंद्रित नहीं हो पा रहा है. हालांकि विपक्ष की भरपूर कोशिश है कि वह दस साल के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शासन के खिलाफ सरकार विरोधी माहौल को तैयार कर पाए. किंतु विपक्षी गठबंधन के दो दलों के समक्ष दलीय पहचान का संकट है.
उनके पास नेता हैं, किंतु चिह्न पुराने नहीं हैं. वे सरकार के खिलाफ बोलने की क्षमता रखते हैं, लेकिन खुद की परेशानियों के हल उनके पास नहीं हैं. उनके पास केवल एक ही उम्मीद सहानुभूति की है, जिसकी बदौलत मतदान का आकलन किसी के पास नहीं है. इसलिए सहानुभूति पर आश्रित रहने से काम नहीं चल सकता.
चुनाव को लेकर मुद्दों की बात की जाए तो महाराष्ट्र में जातिगत आरक्षण की मांग, किसानों के समक्ष ऋण का संकट, बेमौसमी बरसात से फसलों का नुकसान, लंबे समय से राज्य में किसी बड़े उद्योग का नहीं आना, अनेक इलाकों में पानी की कमी के साथ राष्ट्रीय मुद्दे, बेरोजगारी और महंगाई अपनी जगह हैं. प्याज, गन्ना, कपास, सोयाबीन, तुअर जैसी फसलें दामों को लेकर लगातार फंस रही हैं.
प्याज और शक्कर के निर्यात को लेकर बनती-बिगड़ती सरकारी नीतियां किसानों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित कर रही हैं. मराठवाड़ा, विदर्भ और खान्देश में उद्योगों का विस्तार नहीं होने से बेरोजगारी का संकट अपनी जगह है. राज्य में बड़े पैमाने पर निजी शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों का संकट होने से समस्याएं अपनी जगह हैं.
बेरोजगारी के चलते शिक्षा पर अधिक निवेश से भी रोजगार के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं. आवागमन की स्थितियों में सुधार हुआ है, किंतु उससे आर्थिक स्तर पर सुधार दर्ज नहीं किया जा रहा. आम आदमी की आमदनी में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है. किंतु इन मामलों की तार्किक परिणति चुनाव के मैदान के बीच तक नहीं पहुंच पा रही है.
फिलहाल दलों के समक्ष समूचा संघर्ष खुद के अस्तित्व को बनाए रखने का है. उसी में जोड़-तोड़ की राजनीति चुनाव की पहचान बन चुकी है, जिससे मतदाता के मन पर किसी तरह की छाप नहीं छूट पा रही है. वह बार-बार भ्रम की अवस्था में चला जा रहा है. अप्रैल माह की 19 तारीख से आरंभ हुए मतदान के बाद 26 अप्रैल को दूसरा चरण हुआ है.
फिर भी दोनों ही दौर के मतदान में मतदाता के मन की बात का अंदाज सामने नहीं आया है. यहां तक कि कोई भी राजनीतिक दल खुलकर अपने पक्ष में माहौल का दावा तक नहीं कर पाया है, जिसका कारण आत्मविश्वास और सही अनुमान दोनों का अभाव है, जिसे राजनीतिक दलों ने फूट से गंवाया है. चूंकि दलों के टूटने का आधार राजनीतिक महत्वाकांक्षा था.
इसलिए चुनाव के समय उसका चरम पर आना भी स्वाभाविक है. इसी से सीटों के बंटवारे को लेकर सभी दलों में खासी रस्साकशी हुई. यहां तक कि कई दलों के मुंबई सहित कुछ सीटों पर अभी-भी उम्मीदवार तय नहीं हो पाए हैं. इस स्थिति में प्रत्याशी के तय होने पर ही चुनावी दिशा तय हो पा रही है, जो आगे चलकर व्यक्ति विशेष के ऊपर केंद्रित हो जा रही है.
ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए चुनावी मुद्दों का गौण हो जाना परिस्थिति के अनुरूप ही है. यही वजह है कि सामने बने चुनावी समीकरणों से चुनावी रुख का अंदाज या मतदाता के मन में बनी राजनीतिक तस्वीर का अनुमान लगा पाना आसान नहीं हो पा रहा है. आने वाले दिनों में तीसरे, चौथे और पांचवें चरण के लिए राज्य में मतदान होगा.
मगर पांच चरणों में मतदान होने के बावजूद चुनावी स्थिति का भ्रामक स्तर पर पहुंचना आश्चर्यजनक भी है और चिंताजनक तो है ही, जिससे चुनाव के अंतिम परिणामों के सामने आने तक उम्मीदवारों की नैया मंझधार में दिखाई देगी.