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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: फिर भी वे नहीं रोक पाए आम आदमी पार्टी को

By अभय कुमार दुबे | Published: March 23, 2022 12:41 PM

क्षेत्रीय समझी जाने वाली आम आदमी पार्टी ने राष्ट्रीय दल बनने की तरफ सशक्त कदम बढ़ा दिए हैं. पार्टी के पास गवर्नेस का एक मॉडल भी है जो अगर पंजाब में भी ये सफल हुआ तो भाजपा के लिए चुनौती बन सकता है.

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पंजाब में भाजपा की राजनीतिक भूमिका आमतौर पर सीमित किस्म की रहती आई है. वह शहरों के हिंदू व्यापारियों की पार्टी है. सिखों में उसका जोर कभी नहीं रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सिखों को हिंदुत्व की तर्ज पर संगठित करने के लिए एक संगठन राष्ट्रीय सिख संगत (इसे भी आरएसएस कहा जाता है) का गठन कर रखा है. 

शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को इस पर आपत्ति रही है. इस लिहाज से भी सिखों के इस सबसे बड़े संगठन का हिंदुत्व के विचार के साथ छत्तीस का आंकड़ा बन जाता है. दूसरी तरफ इस वैचारिक अंतर्विरोध के बावजूद चुनावी दृष्टि से स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए भाजपा ने अकाली दल का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार किया. नतीजा यह निकला कि अकाली दल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (राजग) में शिवसेना की तरह ही भाजपा का सबसे पुराना सहयोगी बन गया. 

शिवसेना हिंदुत्ववादी है, लेकिन अकाली दल ने हिंदुत्ववादी न होते हुए भी अयोध्या में कारसेवा के लिए सिख कारसेवकों का जत्था भेजने का ऐलान किया. प्रकाश सिंह बादल ने कई बार कहा कि भाजपा से अकाली दल का संबंध मांस और नाखून जैसा है. बदले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंच पर सार्वजनिक रूप से बादल के पैर छूते नजर आए.

पिछली बार भाजपा को लग गया था कि अकाली दल की सरकार से पंजाब के लोग बहुत नाराज हैं. लेकिन उसने इस नाराजगी का स्पष्ट रूप से लाभ उठाती लग रही आम आदमी पार्टी को रोकने के लिए स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के साथ एक खुफिया समझौता किया. शहरी हिंदुओं के वोटों को चालाकी से अमरिंदर सिंह और कांग्रेस की तरफ मोड़ा गया. जो वोट आम आदमी पार्टी को मिलने जा रहे थे, वे कांग्रेस के खाते में चले गए. 

पूरी हवा होते हुए भी आम आदमी पार्टी के विपक्ष की पार्टी में सिमट जाने के पीछे कई कारण थे. इनमें एक अहम कारण यह भी था. इस बार भी भाजपा ने कोशिश की. वह साफ तौर पर देख सकती थी कि जनता न तो अकालियों की वापसी के पक्ष में है, और न ही कांग्रेस को भाव देना चाहती है. कांग्रेस में भीषण कलह भी थी जिसका एहसास वोटरों को भी था. लोग परस्पर जूझ रही पार्टी को वोट देने के लिए तैयार नहीं थे. नए मुख्यमंत्री चन्नी दलित जरूर थे, लेकिन दलित वोटरों में भी उन्हें लेकर कोई खास उत्साह नहीं था. इसलिए भाजपा ने आप को रोकने के लिए एक नहीं बल्कि कई दांव खेले.

डेरा सच्चा सौदा के सजा काट रहे गुरु राम रहीम को मतदान से ठीक पहले हरियाणा की भाजपा सरकार द्वारा फरलो पर रिहा किया गया. राम रहीम ने भाजपा के उम्मीदवारों के  पक्ष में तो वोट देने का फतवा दिया ही, उसने कई सीटों पर अकालियों के पक्ष में भी फतवा दिया. दूसरा दांव आप के पूर्व नेता और कवि कुमार विश्वास से अरविंद केजरीवाल विरोधी वक्तव्य दिला कर खेला गया. 

इसमें कांग्रेस और भाजपा की मिलीभगत ने काम किया. इसके तहत आरोप लगाया गया कि आप की उग्रपंथी पंथिक तत्वों के साथ साठगांठ पिछले चुनाव से ही चल रही है. तीसरा दांव पंजाबी अभिनेता दीप संधू की दुर्घटना में मृत्यु की आड़ में खेला गया. इसके जरिये उन युवकों को आप से दूर करने या उनका जोश कम करने की कोशिश की गई जो दीप संधू के अतिवादी राजनीतिक रुझानों  के प्रति हमदर्दी रखते थे.

यह देखना दिलचस्प होगा कि इस राजनीतिक दांवपेंच के प्रति पंजाब के मीडिया और बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया रही. दिल्ली का मीडिया तो कुमार विश्वास के वक्तव्य पर आप विरोधी कलाबाजियां खाने के लिए तैयार बैठा था, लेकिन पंजाब के मीडिया ने इस बयान को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. नतीजा यह निकला कि पंजाब के मतदाताओं  पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन पंजाब के कई पत्रकार यह कहते हुए सुने गए कि इन हथकंडों से आम आदमी पार्टी को बहुमत मिलने की संभावनाएं क्षीण हो गई हैं. 

तर्क यह था कि कुमार विश्वास की बातों से आम आदमी पार्टी की तरफ झुक रहा शहरी हिंदू भाजपा में वापस चला जाएगा, और एक बार फिर आप को उसके वोट नहीं मिल पाएंगे. इन बुद्धिजीवियों और  पत्रकारों को यह मानने में ऐतराज नहीं था कि ‘अंडरकरेंट’ परिवर्तन के  पक्ष में और आम आदमी पार्टी की तरफ है. लेकिन वह जनता के मानस को भांप कर आप के पक्ष में यकीन के साथ यह कहने के लिए तैयार नहीं था कि इस बार पंजाब में झाड़ू चलने वाली है. कहना न होगा कि इस वर्ग के लोगों को चुनाव जीतने की आप की क्षमता पर विश्वास नहीं था.

बहरहाल, अब ये सब बातें अतीत की बात बन चुकी हैं. पंजाब में इतिहास बन चुका है. एक क्षेत्रीय समझी जाने वाली पार्टी ने राष्ट्रीय दल बनने की तरफ सशक्त कदम बढ़ा दिए हैं. इस पार्टी के पास गवर्नेस का एक जांचा-परखा मॉडल भी है जो अगर पंजाब में भी सफल हुआ तो मोदी के गवर्नेस-मॉडल के साथ राष्ट्रीय मंच पर प्रतियोगिता कर सकता है.

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