समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को ऐतिहासिक फैसला देते हुए न्यायपालिका और विधायिका की अपनी-अपनी सीमाओं को रेखांकित किया है। अपने फैसले में सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि समलैंगिक विवाह को कानूनी रूप से मान्यता देना संसद का काम है, अत: देश में समलैंगिक जोड़ों को आपस में शादी करने की कानूनी मान्यता मिलेगी या नहीं, इसका निर्णय अब संसद करेगी।
इतना ही नहीं बल्कि समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने का अधिकार भी नहीं दिया गया है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ का फैसला सुनाते हुए कहा, ‘यह अदालत कानून नहीं बना सकती, वह केवल उसकी व्याख्या कर सकती है और उसे प्रभावी बना सकती है.’ दरअसल अदालत में जैसे-जैसे यह मामला आगे बढ़ा, वैसे-वैसे सबको यह महसूस होता गया कि इसमें कितनी ज्यादा जटिलताएं हैं।
पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने माना कि केवल एक कानून में बदलाव लाने भर से कुछ नहीं होगा क्योंकि तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार और गुजारा भत्ता जैसे अन्य लगभग 35 कानून हैं जिनमें से कई तो धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों के दायरे तक भी जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में संविधान पीठ ने सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को अपराध बनाने वाले भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के हिस्से को अपराध की श्रेणी से हटाते हुए कहा था कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। इसके बाद 2022 में समलैंगिक जोड़ों ने विशेष विवाह अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का अनुरोध करने के लिए उच्चतम न्यायालय का रुख किया था, जहां केंद्र ने समलैंगिक विवाह को मान्यता दिए जाने का विरोध किया।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि समलैंगिकता समाज में पुराने जमाने से ही मौजूद रही है, लेकिन तथ्य यह भी है कि इसे समाज में कभी भी मुख्यधारा में स्थान नहीं मिला। समाज के नीति-निर्माताओं को शायद लगता रहा होगा कि अगर इसे मान्यता दी गई तो समाज का स्थापित ताना-बाना खतरे में पड़ सकता है लेकिन समय के साथ मान्यताएं बदलती रहती हैं।
शायद इसीलिए वर्ष 2018 में सर्वोच्च अदालत ने इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। जहां तक केंद्र द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिए जाने का विरोध करने का सवाल है, संभवत: उसे लग रहा है कि मान्यता देने पर समाज में बहुत सारी कानूनी जटिलताएं पैदा हो जाएंगी और कदाचित बहुसंख्यक समाज भी अभी ऐसा करने के पक्ष में नहीं है।
चूंकि जनप्रतिनिधि जनता के वोट से ही चुने जाते हैं, इसलिए वे जनमत की उपेक्षा नहीं कर सकते. बेशक अदालत का यह कहना अपनी जगह दुरुस्त है कि समलैंगिक व्यक्तियों के साथ भेदभाव नहीं किया जाना समानता की मांग है और इसीलिए सरकार ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के बजाय समलैंगिक जोड़ों की ‘मानवीय पहलुओं से जुड़ी चिंताओं’ को सुलझाने के लिए देश के शीर्ष नौकरशाह- कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाने का प्रस्ताव रखा है। सर्वोच्च अदालत ने एक बेहद जटिल मुद्दे पर जिस तरह का फैसला सुनाया है, वह निश्चित रूप से काबिले तारीफ है।