पूरी दुनिया के लोग प्रदूषण से प्रभावित हैं, जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं और पृथ्वी का भविष्य संकट में लग रहा है। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसले इनसे संबंधित संस्थाओं के मुख्य एजेंडे में हैं। इनका वहां जोर-शोर से जिक्र भी हो रहा है लेकिन जिस राजनीतिक पटल पर इन मुद्दों का उल्लेख होना चाहिए- वहां से ये तकरीबन गायब हैं।
चुनावी दौर में प्रायः जनता किसी राजनीतिक दल या नेता से ये सवाल नहीं पूछ रही है कि अगर पृथ्वी का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो क्या उनके एजेंडे में इससे बचाव का कोई उपाय शामिल है।
हमारे देश में जारी चुनावी प्रक्रिया के तहत चार चरणों के मतदान संपन्न हो चुके हैं, पर किसी बड़े राजनीतिक दल ने अभी तक ऐसा कोई वादा या आश्वासन जनता को नहीं दिया है कि अगर वे सत्ता में आए तो पानी के संकट, पर्यावरण के प्रदूषण, कचरे की बढ़ती समस्या से कैसे निजात दिलाएंगे और साफ हवा-पानी का पर्यावरणीय संकल्प कैसे ले पाएंगे।
असल में, पर्यावरण और विज्ञान संबंधी मुद्दों को चुनावी प्रक्रिया में चर्चा का हिस्सा बनाने की इस पहलकदमी पर हमारी नजर पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में बढ़ते प्रदूषण के कारण पर्यावरण पर हो रहे असर के मद्देनजर गई है।
देश में संभवतः यह पहला ऐसा लोकसभा चुनाव है, जिसमें अपनी दावेदारी पेश करते हुए पश्चिम बंगाल के कुछ राजनीतिक दलों ने पर्यावरण संतुलन कायम करने के लिए इस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग की है।
इसके पीछे कुछ महीने पहले सामने आई एक रिपोर्ट है जिसमें दावा किया गया है कि बेतहाशा प्रदूषण की वजह से इस पर्वतीय इलाके की वायु गुणवत्ता बेहद खराब हो चुकी है। दावा है कि दार्जिलिंग और नजदीकी जगहों पर पर्यटकों की बढ़ती भीड़ ने प्रदूषण को खतरनाक स्तर तक बढ़ा दिया है, जिससे स्थानीय लोग परेशानी महसूस करने लगे हैं।
पश्चिम बंगाल के राजनीतिक पटल पर पर्यावरण की आवाज को मुखर करने के पीछे असल में एक बड़ी भूमिका लद्दाख क्षेत्र में प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक का आंदोलन है। वांगचुक ने बिगड़ते पर्यावरण का हवाला देकर लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग के साथ 21 दिन तक भूख हड़ताल की जिसे विश्वव्यापी चर्चा मिली।
लद्दाख और दार्जिलिंग से पर्यावरण सुधार और संरक्षण की राजनीतिक मांग उठना राजनीतिक क्षेत्र में एक सार्थक बदलाव का संकेत देता है, लेकिन अफसोस है कि ऐसी पहलकदमियां बहुत सीमित हैं। बेंगलुरु भीषण जलसंकट से जूझ रहा है, लेकिन कोई राजनीतिक दल इस संकट से उबरने की योजना अपने घोषणापत्र में शामिल करने का जोखिम नहीं ले सका है।