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ब्लॉग: रेणु की रचनाओं में दर्ज है महिलाओं का संघर्ष और समाधान

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: March 04, 2024 10:24 AM

हिंदी भाषा के अप्रतिम साहित्यकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया (अब अररिया) जिले में फारबिसगंज के पास औराही हिंगना गांव में हुआ था।

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ठळक मुद्देरेणु नारी की वर्तमान समस्याओं को खुलकर पाठकों के समक्ष रखने की भरपूर कोशिश करते हैंरेणु पवित्रा को उसके अपने घर सही घर तक पहुंचाना चाहते हैंआर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी जब तक नहीं होगी, महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी है

हिंदी भाषा के अप्रतिम साहित्यकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया (अब अररिया) जिले में फारबिसगंज के पास औराही हिंगना गांव में हुआ था। रेणु ने अपनी रचनाओं में आधी आबादी की समस्याओं को न सिर्फ उकेरा है बल्कि उनका समाधान भी सुझाया है। रेणु नारी की वर्तमान समस्याओं को खुलकर पाठकों के समक्ष रखने की भरपूर कोशिश करते हैं।

उनके ज्यादातर स्त्री पात्र पारंपरिक बंधनों से मुक्ति चाहते हैं। वे भाषा, लिंग, जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि में बुरी तरह विभाजित हमारे समाज में शोषण का सर्वाधिक शिकार हो रही नारी की केवल शोकांतिका ही नहीं रचते अपितु उसका ईमानदार संघर्ष दिखाते हुए बताते हैं कि जीवन का सच्चा सौंदर्य जीवन से बचने में नहीं, उसका सामना करने में निहित है, इसीलिए यह शोकांतिका भी उनकी नायिका के संघर्ष में प्रदीप्त हो उठी है।

यहां जीवन के सही छंद की तलाश करती हुई नारी के अनेक चेहरे और रूप हैं-निर्धन, धनी, शिक्षिता, अशिक्षिता, असफल प्रेमिकाएं, पत्नी, माता, नौकरीपेशा, समाजसेविका, छलनामयी, छली गई, बलात्कृत आदि. बेलागुप्त, यूथिका, फातिमा, सरस्वती और आयशा- ये  उनके उपन्यास ‘दीर्घतपा’ की वे पंचकन्याएं हैं जो समाज और पुरुष आधिपत्य की सताई हुई हैं, लेकिन उनमें जीने और आत्मोन्नयन की चाह बची हुई है। ‘दीर्घतपा’ में वे शहर के वर्किंग वीमेंस हॉस्टल की मार्फत नारी शोषण का हाल बयान करते हैं।

उपन्यास  ‘जुलूस’ में  वे पूर्वी पाकिस्तानी (संप्रति बांग्लादेशी) शरणार्थियों के जीवन-संघर्ष के माध्यम से नारी की अपने ‘घर’ की अंतहीन तलाश को शब्द देते हैं। ‘जुलूस’ की नायिका पवित्रा जीवन के अनंत सौंदर्य, कोमलता, माधुर्य और सदाशयता के बावजूद दो देशों की अग्नि-परीक्षा से गुजरती हुए पाती है कि भौगोलिक परिस्थितियों की भिन्नता के बावजूद हर देश में मानव-प्रकृति एक जैसी ही होती है। पुरुषसत्तात्मक समाज ने अपनी भोगेच्छा के अनुकूल संस्थाओं और नैतिक नियमों का निर्माण कर रखा है।

ऐसी स्थिति में नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व विकास पर लगी पाबंदियों के कारण उसका हर कदम संघर्षपूर्ण और चुनौती-भरा होता है। ‘जुलूस’ की मुख्य समस्या ‘घर’ की समस्या है। ‘‘पवित्रा को एक बांग्ला गीत बहुत प्रिय है-‘देशे देशे मोर घर आछे, आमि सेइ घर खूंजि मरिया.’ (हर देश में मेरा घर है, वही घर मैं ढूंढ़ती फिर रही हूं.)’’ नारियां स्वभावत: ‘अपना घर’ खोज रही हैं और रेणु पवित्रा को उसके अपने ‘घर’-सही घर तक पहुंचाना चाहते हैं।

यह तो सही है कि आज भी पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं अपने घर की तलाश कर रही हैं। मायके से लेकर ससुराल तक में। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी जब तक नहीं होगी, महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी है।

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