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ब्लॉग: न्यायपालिका पर बोझ कम करने की कवायद, लंबित मामलों को तेजी से निपटाने में जुटे चीफ जस्टिस यूयू ललित

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: September 01, 2022 2:53 PM

निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में ऐसे लाखों मुकदमे हो सकते हैं, जो कई दशकों से चल रहे हैं. संभव है कि उनकी प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी हो. ऐसे मुकदमों का भी पता लगाया जाना चाहिए.

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सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को 2002 के गुजरात दंगों तथा बाबरी केस से जुड़ी कई याचिकाओं पर न्यायिक कार्यवाही बंद कर दी. अदालत ने बीस साल पुराने गुजरात दंगों की स्वतंत्र जांच के लिए दायर की गई 11 तथा बाबरी केस में दायर अवमानना याचिकाओं को अप्रासंगिक करार दिया. 

प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट तथा न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की खंडपीठ के इस फैसले ने निचली अदालतों के लिए भी उदाहरण पेश किया है कि वे वर्षों से लंबित उन याचिकाओं पर सुनवाई में समय बर्बाद न करें, जो अप्रासंगिक हो चुकी हैं. गुजरात दंगों को 20 तथा बाबरी केस को तीस साल हो चुके हैं. 

गुजरात दंगों से जुड़े ज्यादातर मामलों में विभिन्न अदालतें  फैसला  सुना चुकी हैं. बाबरी मसला भी सर्वोच्च न्यायालय के 9 नवंबर 2019 के फैसले के बाद लगभग हल हो चुका है. इस फैसले को दोनों पक्षों ने देश के हित को ध्यान में रखते हुए सौहार्द्रपूर्ण ढंग से स्वीकार किया है. 

गुजरात दंगों की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए दायर याचिकाओं की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है. गुजरात दंगों से जुड़े अलग-अलग मामलों की स्वतंत्र जांच हो चुकी है. दंगों का ऐसा कोई कोण नहीं बचा जिसकी जांच न हुई हो. इन सभी मामलों में जांच के बाद मुकदमे विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं. यह अलग बात है कि फैसला आने में विलंब हो रहा है मगर महत्वपूर्ण मामलों का निपटारा सुप्रीम कोर्ट कर चुका है. 

ऐसे में गुजरात दंगों की फिर से स्वतंत्र जांच करवाने की याचिकाओं का कोई औचित्य नहीं है. ये याचिकाएं न्यायपालिका पर अनावश्यक बोझ डाल रही थीं. जहां तक बाबरी केस का सवाल है तो तीन साल पूर्व मुख्य मामले के निपटारे के साथ ही अवमानना याचिकाओं का औचित्य भी खत्म हो गया. लगता है कि ये याचिकाएं लोकप्रियता हासिल करने के इरादे से दाखिल की गई थीं, उनमें गंभीरता का नितांत अभाव था. 

न्यायपालिका सभी स्तरों पर मुकदमों के भारी बोझ से दबी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक कनिष्ठ न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन हैं. सबसे ज्यादा 80 प्रतिशत मुकदमे निचली अदालतों में चल रहे हैं. उसके बाद उच्च न्यायालयों का नंबर आता है. देश में इतने  सारे लंबित प्रकरणों के लिए भारतीय न्यायिक ढांचे को जिम्मेदार ठहराया जाता है मगर यह धारणा गलत है. 

भारतीय न्याय व्यवस्था दुनिया की सर्वश्रेष्ठ न्याय प्रणालियों में से एक है और वह यह सुनिश्चित करती है कि किसी निर्दोष को सजा न हो. यह बात जरूर है कि न्यायिक ढांचे में व्यापक सुधार की जरूरत है. न्याय में विलंब का एक बड़ा कारण न्यायाधीशों की कमी है. न्यायाधीशों के रिक्त पद भरने की दिशा में हाल के वर्षों में तेजी से कदम उठाए गए हैं और उम्मीद है कि सकारात्मक परिणाम जल्द ही सामने आने लगेंगे. 

प्रधान न्यायाधीश का पद संभालते ही न्यायमूर्ति ललित ने लंबित मामलों को निपटाने की गति तेज करने पर जोर दिया. पद संभालने के बाद उन्होंने पहले ही दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए सौ मामलों को सूचीबद्ध किया तथा अपने इरादे जाहिर कर दिए. अदालतों में लंबित मामलों की गहन समीक्षा करने का वक्त आ गया है. 

निचली अदालतों तथा उच्च न्यायालयों में ऐसे लाखों मुकदमे हो सकते हैं, जो कई दशकों से चल रहे हैं तथा उनकी प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी है. ऐसे मुकदमों का पता लगाया जाना चाहिए ताकि उन पर अदालतों का और वक्त बर्बाद न हो. इससे न्यायपालिका पर भी बोझ कम करने में मदद मिलेगी.

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