राजेश बादल
जब हम गांधी को याद करते हैं तो उनका सिर्फ आजादी दिलाने वाला रूप ही जहन में उभरता है। हम उन्हें अहिंसक क्रांतिदूत मानकर अन्य रूपों को विस्मृत कर देते हैं। यह भारतीय समाज के लिए अच्छा नहीं है। वे जितने अच्छे अर्थशास्त्री थे, जितने अच्छे इंसान थे उतने ही अच्छे पत्रकार - संपादक और संप्रेषक।
जब हम गांधी के सार्वजनिक सफरनामे को देखते हैं तो चार हिस्से दिखाई देते हैं -पहला 1889 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में। दूसरा 1915 से 1919 तक हिंदुस्तान में यायावरी और चंपारण आंदोलन। तीसरा 1920 से 1942 और चौथा 1944 से 1948 तक। इन सभी कालखंडों में महात्मा गांधी कहीं पत्रकार तो कहीं संपादक तो कहीं जागरूक लेखक दिखाई देते हैं। इस पत्रकारिता का निचोड़ है सच के साथ संवाद। अगर इसे मिशन कहते हैं तो यह संवाद है। अगर मानें कि यह व्यवसाय है तो वह भी सच कहने का है।
आज हम दबाव की बात करते हैं तो सच को नहीं भूल सकते। सोचिए, गांधी की पत्रकारिता गुलाम दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है, जहां अदालत में पगड़ी पहनकर जाने पर बंदिश हो, गांधी की खिल्ली उड़ाई जाए, फुटपाथ पर भारतीयों के चलने पर रोक लगी हो, रेलगाड़ी से धक्का मारकर उतार दिया जाता हो वहां सच लिखने और बोलने की तो कल्पना ही कठिन है।
अदालत में अपमान के बाद गांधी का जवाब
अदालत में अपमान के बाद गांधीजी ने लंदन के इंडिया में दनादन लेखों की भरमार कर दी। सन 1915 में वे हिंदुस्तान आते हैं। भारत भर में घूमते हैं और फिर लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए 1919 में नवजीवन गुजराती में शुरू करते हैं।
नवजीवन इतना लोकप्रिय हुआ कि तमिल, उड़िया, उर्दू, मराठी, कन्नड़ और बंगाली में भी प्रकाशित करना पड़ा। यंग इंडिया के पन्नों पर संपादक महात्मा गांधी उद्वेलित करने वाले विचारों की नदी बहा देते हैं।
सन 1919 में रौलेट एक्ट के विरोध में गांधी सत्याग्रह का प्रकाशन करते हैं। इस अखबार के प्रकाशन की अनुमति भी वे नहीं लेते। पहले अंक में ही लिखते हैं कि सत्याग्रह का प्रकाशन तब तक होता रहेगा, जब तक कि एक्ट वापस नहीं लिया जाता। यह साहस दिखाने वाले सिर्फ गांधी ही हो सकते थे।
आज के दौर में गांधी
लेकिन हाल के दौर में अजीब सा विरोधाभास है। आज हम पाते हैं कि गांधी से उपकृत राष्ट्र में उनका पुण्य स्मरण करते हुए वह हार्दिक कृतज्ञता बोध नहीं है। पिछले चालीस-पचास वर्षो में कभी गांधी की छवि को खंडित करने के प्रयास नहीं हुए।
लेकिन अब गांधी को अनेक ऐसे घटनाक्रमों के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है, जिनका वास्तव में उनसे कोई लेना देना ही नहीं है। कह सकते हैं कि गांधी को लेकर दो बड़े पाप हमसे हुए हैं, जिनका प्रायश्चित इस देश को आज नहीं तो कल करना ही होगा।
एक तो गांधी को हमने अपने समाज की स्मृति से अनुपस्थित हो जाने दिया और दूसरा यह कि इतिहास की अनेक भूलों को हम गांधी के नाम थोप कर अपने आलसीपन के अपराध से बचने का प्रयास कर रहे हैं।