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कलराज मिश्र का ब्लॉग: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़ा गांधी का अहिंसा मार्ग

By कलराज मिश्र | Updated: January 30, 2021 11:40 IST

राष्ट्र के रूप में हमारे देश का विकास केवल यहां के भू-भाग और किसी राजनैतिक सत्ता के अस्तित्व के कारण नहीं बल्कि पांच हजार से भी अधिक पुरानी हमारी संस्कृति के कारण हुआ है.

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महात्मा गांधी को हम सभी राष्ट्रपिता संबोधित करते हैं. जब भी उनके इस संबोधन पर गहराई से विचार करता हूं, राष्ट्र से जुड़े उनके आदर्श और सभी को साथ लेकर चलने की उनकी उदात्त दृष्टि जहन में कौंधने लगती है.

मैं यह मानता हूं कि यह गांधी ही थे जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करते हुए उसे भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों से जोड़ा.

राष्ट्र के रूप में हमारे देश का विकास केवल यहां के भू-भाग और किसी राजनैतिक सत्ता के अस्तित्व के कारण नहीं बल्कि पांच हजार से भी अधिक पुरानी हमारी संस्कृति के कारण हुआ है. एक बड़े भू-भाग में भाषा, क्षेत्रों की परंपराओं में वैविध्यता के बावजूद इसीलिए हमारे सांस्कृतिक मूल्य निरंतर जीवंत रहे हैं.

गांधीजी ने आजादी के आंदोलन में इसी सांस्कृतिक जीवंतता को अहिंसा और नैतिक जीवन मूल्यों से जोड़ा. यही उनका वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था जिसमें देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने हेतु आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए उन्होंने राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से एक किया.

सांस्कृतिक एकता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक दृष्टि है. यही असल में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है. इसी में अनेकता में एकता के बीज अंकुरित होते हैं. महात्मा गांधी ने देश की विविधता की ताकत को पहचानते हुए समानता की सोच के साथ राष्ट्र को स्वाधीनता आंदोलन के लिए एकजुट करने का कार्य किया.

राष्ट्र को सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने अपने आंदोलनों में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित की. उनके लिए स्वाधीनता केवल अंग्रेजों की गुलामी से मुक्तितक सीमित नहीं थी बल्कि पूरे देश में स्वराज की स्थापना पर उनका जोर था. इसीलिए स्वदेशी को अपनाने के बहाने उन्होंने राष्ट्र और उससे जुड़ी वस्तुओं, संस्कृति से प्रेम करने की राह भी सुझाई.

गांधीजी का यह पक्ष भी मुङो हमेशा से प्रभावित करता रहा है कि राजनीति को दूसरे पक्ष के विरोध की बजाय उन्होंने सृजन व सहनशीलता से जोड़ा. चरखे पर सूत कातना, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना दूसरे पक्ष का विरोध नहीं प्रत्यक्षत: सृजन सरोकार ही थे और सत्याग्रह सहनशीलता.

आजादी के आंदोलन में देश के लोगों में परस्पर सद्भाव जगाते जन-मानस में सकारात्मक बदलाव की उन्होंने पहल की. यह एक तरह से उनके द्वारा देश में गुलामी के दौर में भी लोकतांत्रिक संस्कृति का विकास करने जैसा था.

अंग्रेज देश को लंबे समय तक गुलाम रखे जाने की कूटनीति जानते थे. इसीलिए परस्पर लोगों को संप्रदाय, जातिवाद और मजहब के नाम पर लड़वाकर प्राय: लोगों को उग्र कर अनैतिक हिंसा के लिए उकसाते थे. इसकी आड़ में वे आजादी के आंदोलन के लिए लड़ने वालों का भी दमन करते थे.

गांधीजी ने चंपारण सत्याग्रह के जरिये स्वाधीनता आंदोलन में इस तरह से राजनीतिक प्रवेश किया कि तब उनके नेतृत्व में लोगों ने न तो राज्य के विरुद्ध हिंसा की, न बगावत की. नील आंदोलन में ब्रिटिश सरकार द्वारा गांधीजी को जब प्रतिबंधित किया गया तो 1917 में उन्होंने न्यायाधीश के समक्ष अपनी जो बात रखी, वह आज भी मन में कौंधती है.

उन्होंने कहा, ‘कानून को मैंने तोड़ा है. इसके लिए आप मुझे सजा दे सकते हैं परंतु मेरा अधिकार है कि मैं अपने देश में कहीं भी आ-जा सकता हूं.’ निडरता से, अहिंसक ढंग से तर्कसंगत अपनी बात रखने का उनका यह जो तरीका था, वही आजादी के आंदोलन का बाद में बड़ा मंत्र बना. उनकी बातों के तर्क और अहिंसापूर्ण  आंदोलन से अंतत: अंग्रेजों को चंपारण आंदोलन में झुकना पड़ा.  

राज्य की हिंसा वैधानिक होती है और जनता की हिंसा बगावत मानी जाती है. बगावत को अनैतिक मानते हुए कुचलना कोई मुश्किल नहीं होता. इसलिए कि बहुत से मायनों में बगावत में अनैतिकता भी कई बार प्रवेश कर जाती है, ऐसे में राज्य को जनता की हिंसा को कुचलने की नैतिकता का हथियार मिल जाता है.

अंग्रेजों ने अपने राज की आड़ में हमेशा यही किया. गांधीजी इस बात को जानते थे इसलिए उन्होंने राज्य की हिंसा का मुकाबला भारतीय संस्कृति में चली आ रही अहिंसा की परंपरा से करने का नैतिक साहस देश की जनता को दिया. अहिंसा का उनका हथियार ऐसा था जिसमें राज्य के दमन के सारे तर्क विफल हो जाते हैं.

इसके बाद फिर भी लोगों को कुचलने के लिए कार्य होता है तो राज्य की अपनी नैतिकता दांव पर लग जाती है. गांधीजी ने अंग्रेजों को इस तरह मानसिक रूप से अशक्त करने का कार्य किया. अंग्रेजों के विरुद्ध उनके नेतृत्व में की गई देश की लड़ाई इसीलिए निर्णायक हुई और देश को आजादी मिल सकी.

एक बड़ा पहलू गांधीजी के स्वाधीनता आंदोलन का यह भी था कि राजनीतिक आजादी के लिए वे सामाजिक सुधार को केंद्र में लेकर आए. सामुदायिकता की भावना का विकास किया. इसीलिए मुझे यह भी लगता है कि धर्म, जातियों, समुदायों, भाषाओं, महिला-पुरुष भेद से परे उनकी दृष्टि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की थी.

यह ऐसी सोच थी जिसमें घृणारहित समाज की स्थायी आजादी के मूल्य निहित हैं. यही उनकी न्यायसंगत राजनीति की व्यापक दृष्टि है. उन्होंने उन्होंने बार-बार कहा भी है कि राजनीतिक आंदोलन बगैर सामाजिक सुधार के सफल नहीं हो सकता. इसीलिए गांधीजी को किसी दल विशेष से जुड़ा नहीं कहा जा सकता.

तत्कालीन परिस्थितियों में जिनका मत देश के लिए उन्हें अच्छा लगा, उसे स्वीकारा और जो उन्हें देश हित में नहीं जंचा, उससे असहमति व्यक्त करने में भी देर नहीं की. असल में गांधीजी का ध्येय अंग्रेजों की गुलामी से देश की मुक्ति तक ही सीमित नहीं था बल्कि देश को इस रूप में पूर्ण स्वतंत्र करने के वे पक्षधर थे कि जिसमें अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के हित को नीति निर्धारण में रखा जा सके.

देश की विविधता में एकता को देखते हुए अन्त्योदय, समानता और सभी को साथ लेकर चलने के गांधीजी के अहिंसा मार्ग में ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और न्यायसंगत राजनीति की उनकी सोच को गहरे से समझा जा सकता है.

टॅग्स :महात्मा गाँधीभारत
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