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Shibu Soren Death: सूदखोरों के चंगुल से आदिवासियों को बचाया?, दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जीवन...

By एस पी सिन्हा | Updated: August 4, 2025 15:13 IST

Shibu Soren Death: शिबू सोरेन पिछले 38 वर्षों से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता थे और संस्थापक संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।

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ठळक मुद्देजून के आखिरी हफ्ते में किडनी संबंधी समस्या के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था। शिबू सोरेन जन्म 11 जनवरी 1944, तत्कालीन बिहार में रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था।शिबू सोरेन वेंटिलेटर पर थे और हालत गंभीर थी।

रांचीः झारखंड मुक्ति मोर्चा(झामुमो) प्रमुख दिशोम गुरु शिबू सोरेन का सोमवार की सुबह दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया। 81 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। वे लंबी बीमारी का इलाज करा रहे थे। शिबू सोरेन वेंटिलेटर पर थे और उनकी हालत गंभीर थी। शिबू सोरेन जन्म 11 जनवरी 1944, तत्कालीन बिहार में रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था। उन्हें जून के आखिरी हफ्ते में किडनी संबंधी समस्या के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था। शिबू सोरेन पिछले 38 वर्षों से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता थे और उन्हें पार्टी के संस्थापक संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।

शिबू सोरेन का जीवन संघर्षों से भरा रहा। सियासत में कदम रखने से पहले वे बागी नेता बनकर उभरे थे, जिसने सूदखोरों के चंगुल से आदिवासियों को बचाया। कहा जाता है कि शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन भी सामाजिक कार्यकर्ता थे और आदिवासियों के हित के लिए काम करते थे। इससे कुछ सूदखोर उनसे नाराज हो गए।

सोरेन के परिवार के अनुसार, उनका प्रारंभिक जीवन गहरे सामाजिक-आर्थिक संघर्षों से भरा रहा। तत्कालीन हजारीबाग जिले के गोला प्रखंड अंतर्गत नेमरा गांव के रहने वाले किशोर शिबू सोरेन ने उसी वक्त से सूदखोरों-महाजनों के खिलाफ संघर्ष का संकल्प लिया था। पिता के हत्यारों को अदालत से सजा दिलाने के लिए शिबू और उनके परिवार ने लंबे संघर्ष के दौरान जो दुश्वारियां झेलीं, उसने उन्हें विद्रोही बना दिया।

वो आदिवासियों को एकजुट कर महाजनों-सूदखोरों के खिलाफ लड़ने लगे। वो और उनके अनुयाई तीर-धनुष लेकर चलते थे। धनबाद, हजारीबाग, गिरिडीह जैसे इलाकों में महाजनों के खिलाफ इस आंदोलन ने कई बार हिंसक रूप ले लिया था। सोरेन 15 साल के थे जब उनके पिता शोबरन सोरेन की 27 नवंबर, 1957 को गोला प्रखंड मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर लुकैयाटांड जंगल में साहूकारों ने कथित तौर पर बड़ी निर्ममता से हत्या करवा दी। इस घटना के वक्त शिबू सोरेन सिर्फ 13 साल के थे।

पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने महाजनों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और महजनों के खेतों से धान की फसल काटकर ले आते थे। महाजनी प्रथा के विरोध में उनके इस कदम को धनकटनी आंदोलन का नाम मिला। शिबू सोरेन के आह्वान पर इन इलाकों में आदिवासी महिलाएं खेतों में उतर गईं। आदिवासी पुरुष खेतों के बाहर तीर-धनुष लेकर पहरा देते और आदिवासी महिलाएं धान काटती थीं।

इसे लेकर कुछ स्थानों पर महाजन और पुलिस के साथ आंदोलनकारियों का हिंसक संघर्ष भी हुआ, कई लोगों की जान भी गई। विभिन्न थानों में शिबू सोरेन पर मामला भी दर्ज हुआ। पुलिस-प्रशासन के लिए शिबू सोरेन बड़ी चुनौती बन गए। वो कभी पारसनाथ की पहाड़ी तो कभी टुंडी के जंगलों में अंडरग्राउंड रहे। उनकी एक पुकार पर डुगडुगी बजते ही हजारों लोग तीर-धनुष लेकर इकट्ठा हो जाते थे।

बाद में धनबाद के तत्कालीन डीसी केबी सक्सेना और कद्दावर कांग्रेसी नेता ज्ञानरंजन के सहयोग से शिबू सोरेन ने आत्मसमर्पण किया था। दो महीने जेल में रहने के बाद बाहर आए। उन्होंने सोनोत संताल नाम का संगठन बनाकर आंदोलन किया। इसी दौरान उन्हें संताली समाज ने दिशोम गुरु की उपाधि दी गई। दिशोम गुरु का शाब्दिक अर्थ होता है देश का नेता। आदिवासियों ने उन्हें दिशोम गुरु का नाम दे दिया।

सोरेन की पहली राजनीतिक गतिविधि 1970 के दशक की शुरुआत में हुई, जब वे आदिवासी ज़मीनों को बाहरी तत्वों से मुक्त कराने में शामिल हुए। जल्द ही वे एक प्रभावशाली आदिवासी नेता बन गए। हालांकि, कई मौकों पर उनकी राजनीतिक गतिविधियों में हिंसा शामिल होने का आरोप लगाया गया।

झारखंड को अलग राज्य बनाने के लिए शिबू सोरेन ने सियासत में कदम रखा और बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय के साथ मिलकर 4 फरवरी, 1972 को धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। विनोद बिहारी महतो झामुमो के पहले अध्यक्ष बने थे और शिबू सोरेन पहले महासचिव।

कुछ सालों में पार्टी ने दक्षिण बिहार (वर्तमान झारखंड) के साथ-साथ उड़ीसा और बंगाल में जनमुद्दों खास तौर पर अलग राज्य के आंदोलन की बदौलत जनाधार विकसित कर लिया। 1974 की शुरुआत में सोरेन पर एक समूह का नेतृत्व करने का आरोप लगाया गया जिसने एक भोज के लिए बकरे की बलि को लेकर हुए विवाद में दो लोगों की हत्या कर दी और जनवरी 1975 में एक मुस्लिम बहुल गांव पर भीड़ के हमले में भी उनका हाथ बताया गया, जिसमें कई लोग मारे गए। अंततः उन पर और प्रत्येक मामले में अन्य लोगों पर हत्या के आरोप लगाए गए।

बाद के वर्षों में सोरेन अन्य आपराधिक गतिविधियों में भी शामिल रहे, जिससे उनका राजनीतिक कैरियर जटिल हो गया और महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बने रहने की उनकी क्षमता प्रभावित हुई। शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति में आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के प्रबल पैरोकार थे। उनके नेतृत्व में झामुमो ने आदिवासी समुदाय के हितों के लिए कई महत्वपूर्ण संघर्ष किए।

सोरेन राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। उन्होंने पहली बार 1977 के लोकसभा (भारतीय संसद का निचला सदन) के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन बिहार की एक सीट के लिए अपनी दावेदारी में हार गए। 1980 में शिबू सोरेन पहली बार दुमका से सांसद चुने गए।

इसी वर्ष बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव में पार्टी ने संथाल परगना क्षेत्र की 18 में से 9 सीटें जीतकर पहली बार अपने मजबूत राजनीतिक वजूद का एहसास कराया। 1991 में झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष विनोद बिहारी महतो के निधन के बाद शिबू सोरेन पार्टी के अध्यक्ष बने और इसके बाद से वो इस पार्टी के पर्याय बन गए।

झारखंड अलग राज्य के लिए चले आंदोलन को निर्णायक दौर में पहुंचाने का बहुत हद तक श्रेय झामुमो को जाता है। 2015 में जमशेदपुर में पार्टी के दसवें महाधिवेशन में हेमंत सोरेन को जब पहली बार पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया, तभी से पार्टी में एक नए दौर की शुरुआत हुई। शिबू सोरेन 1989, 1991, 1996 और 2004 में पुनः चुनाव जीता।

बाद वाला चुनाव झारखंड की एक सीट से। इसके अलावा, 2002 में वे झारखंड की एक सीट से राज्यसभा (संसद का ऊपरी सदन) के लिए चुने गए, एक ऐसा पद जिससे उन्होंने 2002 में लोकसभा की एक सीट के लिए हुए उपचुनाव में जीत के बाद इस्तीफा दे दिया। साल 2004, 2009 और 2014 में वे फिर से दुमका संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतने में सफल रहे।

इस प्रकार कुल मिलाकर आठ बार शिबू सोरेन दुमका से लोकसभा का चुनाव जीतने में कामयाब रहे। शिबू इस दौरान केंद्र की नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बने। झारखंड की स्थापना के बाद तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। वह दुमका से कई बार निचले सदन के लिए चुने गए। मई 2014-2019 के बीच 16वीं लोकसभा के सदस्य के रूप में आठवीं बार।

वह जून 2020 में राज्यसभा के लिए चुने गए। यूपीए सरकार में कोयला मंत्री के रूप में उन्होंने 23 मई से 24 जुलाई, 2004 तक, 27 नवंबर, 2004 से 2 मार्च, 2005 तक और 29 जनवरी से नवंबर 2006 तक कार्य किया। हालांकि, केंद्र में उनके मंत्री पद के कार्यकाल गंभीर कानूनी चुनौतियों के कारण प्रभावित रहे।

जुलाई 2004 में, 1975 के चिरुडीह नरसंहार मामले में उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था, जिसमें उन्हें 11 लोगों की हत्या का मुख्य आरोपी बनाया गया था। गिरफ्तार होने से पहले वह कुछ समय के लिए भूमिगत रहे। न्यायिक हिरासत में कुछ समय बिताने के बाद, उन्हें सितंबर 2004 में जमानत मिल गई और नवंबर में उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में फिर से शामिल कर लिया गया।

बाद में मार्च 2008 में एक अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया। उनकी कानूनी परेशानियां यहीं खत्म नहीं हुईं। 28 नवंबर, 2006 को सोरेन और अन्य को 1994 के अपने पूर्व निजी सचिव शशिनाथ झा के सनसनीखेज अपहरण और हत्या मामले में दोषी ठहराया गया। सीबीआई ने आरोप लगाया कि झा की रांची में हत्या इसलिए की गई।

क्योंकि उन्हें 1993 में नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान कांग्रेस और झामुमो के बीच हुए राजनीतिक सौदे की जानकारी थी। इस मामले ने देशव्यापी ध्यान खींचा, हालांकि बाद में सोरेन ने दोषसिद्धि के खिलाफ सफलतापूर्वक अपील की। अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सोरेन को बरी किए जाने के फैसले को बरकरार रखा।

इन विवादों के बावजूद सोरेन झारखंड के राजनीतिक क्षेत्र में एक प्रमुख व्यक्ति बने रहे। उन्होंने तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया, मार्च 2005 में (2 मार्च से 11 मार्च तक केवल 10 दिनों के लिए), 27 अगस्त 2008 से 12 जनवरी 2009 तक, और 30 दिसंबर 2009 से 31 मई 2010 तक। राज्य में गठबंधन राजनीति की नाजुक प्रकृति के कारण हर कार्यकाल अल्पकालिक रहा।

जून 2007 में सोरेन हत्या के प्रयास में बाल-बाल बच गए, जब गिरिडीह की एक अदालत में पेशी के बाद उन्हें दुमका स्थित जेल ले जाया जा रहा था, तब देवघर जिले के डुमरिया गांव के पास उनके काफिले पर बम फेंके गए। झारखंड की राजनीति में उनका राजनीतिक प्रभुत्व कायम रहा। सोरेन अप्रैल 2025 तक 38 वर्षों तक झामुमो के अध्यक्ष रहे, उन्हें पार्टी का संस्थापक संरक्षक बनाया गया।

उनके पुत्र हेमंत सोरेन झामुमो अध्यक्ष चुने गए। पार्टी वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दल इंडिया ब्लॉक की सदस्य है। शिबू सोरेन का निजी जीवन भी उनके राजनीतिक जीवन से गहराई से जुड़ा रहा है। वह गठबंधन जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (नेशनल पीपुल्स पार्टी) भी शामिल था। राज्य में गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहा।

लेकिन सोरेन का मुख्यमंत्री बनने का प्रयास मार्च 2005 में दो हफ़्ते से भी कम समय तक चला, जब वे राज्य विधानसभा में विश्वास मत हासिल नहीं कर पाए। जनवरी 2006 में सोरेन यूपीए मंत्रिमंडल में वापस आ गए, लेकिन नवंबर 2006 में अपने पूर्व निजी सचिव से जुड़े एक तीसरे हत्या के मामले (1994 के) में दोषी ठहराए जाने के बाद उन्हें फिर से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा।

यह पहली बार था जब किसी राष्ट्रीय कैबिनेट मंत्री को पद पर रहते हुए इस तरह के अपराध का दोषी ठहराया गया था। अगस्त 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोरेन की हत्या की सज़ा को खारिज कर दिया और एक साल बाद वे फिर से झारखंड के मुख्यमंत्री बने। उनका कार्यकाल फिर से छोटा रहा।

क्योंकि वे अपनी नियुक्ति के छह महीने के भीतर राज्य विधानसभा की एक सीट के लिए जनवरी 2009 में हुए उपचुनाव में जीत हासिल नहीं कर पाए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। दिसंबर 2009 में, झामुमो-भाजपा गठबंधन सरकार बनने के बाद, सोरेन ने तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला। भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने और सरकार गिरने के बाद, उन्हें केवल छह महीने बाद ही पद छोड़ना पड़ा।

हालांकि, 2009 की शुरुआत में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। बवजूद इसके वे पार्टी के अध्यक्ष बने रहे। 2010 में वे छठी बार झामुमो अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने अपने बेटे हेमंत के लिए पार्टी में नेतृत्व की भूमिका संभालने का मार्ग प्रशस्त किया। 2020 में शिबू राज्यसभा के लिए चुने गए। उनके परिवार में पत्नी रूपी सोरेन, तीन बेटे और बेटी अंजनी हैं, जो पार्टी की ओडिशा इकाई की प्रमुख हैं।

उनके बड़े बेटे दुर्गा सोरेन का मई 2009 में निधन हो गया। दूसरे बेटे हेमंत सोरेन ने परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया है और वर्तमान में झारखंड के मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने कई कार्यकालों तक इस पद को संभाला है। उनके सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन विधायक हैं। झारखंड में कई लोगों के लिए शिबू सोरेन पहचान और स्वशासन के लिए उनके लंबे संघर्ष का प्रतीक बने हुए हैं, एक ऐसी विरासत जो अगली पीढ़ी तक जारी रहेगी। शिबू सोरेन के सियासी सफर पर नजर डालते हैं जिसे सत्ता, संघर्ष और विवादों की विरासत माना जा सकता है।

झारखंड के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले और झामुमो की स्थापना करने वाले वयोवृद्ध आदिवासी नेता शिबू सोरेन अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जिसने देश की राजनीति को नया आयाम दिया। शिबू सोरेन के निधन के साथ ही उस राजनीतिक युग का अंत हो गया है, जिसमें आदिवासी आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली थी।

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