पटनाः बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग के द्वारा कराए जा रहे मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर सियासी घमासान छिड़ गया है। एक तरफ जहां सत्ताधारी दल इसका समर्थन कर रहे हैं तो वहीं विपक्ष ने इसा बड़ा मुद्दा बनाकर सरकार और चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश शुरू कर दी है। विपक्ष इसे एनडीए सरकार की साजिश बता रहा है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में इसे सियासी मुद्दा बनाकर एनडीए के खिलाफ लोगों को गोलबंद किया जा सके। दरअसल, मतदाता सूची पुनरीक्षण ने महागठबंधन में शामिल दलों को बेचैन कर दिया है। विपक्षी दलों ने मतदाता सूची में छेड़छाड़ के व्यापक आरोप लगाए हैं। लगभग सभी ने मतदाता सूची पुनरीक्षण का विरोध किया है और कहा है कि इससे मताधिकार से वंचित होने का गंभीर खतरा है।
बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर 7.89 करोड़ से अधिक मतदाता हैं। राज्य में इसी साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। बिहार में इस तरह का आखिरी गहन संशोधन 2003 में किया गया था। चुनाव आयोग ने कहा कि बिहार में 2003 की मतदाता सूची को फिर से वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा, जिसमें 4.96 करोड़ लोगों के नाम हैं।
इनमें शामिल लोगों को जन्मतिथि या जन्मस्थान साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं देने होंगे। बाकी 3 करोड़ मतदाताओं को प्रमाण के लिए दस्तावेज देने होंगे। मतदाता सूची में ये संशोधन ऐसे वक्त किए जाने हैं, जब बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। हालांकि इस संबंध में चुनाव आयोग ने कहा है कि प्रत्येक निर्वाचन से पूर्व मतदाता सूची का पुनरीक्षण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(2)(ए) और निर्वाचक पंजीकरण नियमावली, 1960 के नियम 25 के अंतर्गत अनिवार्य है। आयोग बीते 75 साल से यह काम कभी संक्षिप्त तो कभी गहन रूप में करता रहा है।
इस बीच बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर चुनाव आयोग के फैसले को अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। यह याचिका एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा अधिवक्ता प्रशांत भूषण की ओर से दाखिल की गई है। याचिकाकर्ता का दावा है कि यह आदेश मनमाना, संविधान के मौलिक अधिकारों- अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 19 (स्वतंत्रता का अधिकार), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता), 325 और 326 (चुनावी अधिकार) का उल्लंघन करता है।
साथ ही, यह आदेश जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 की धारा 21 ए का भी सीधा उल्लंघन है। याचिकाकर्ता ने अनुमान लगाया है कि इस आदेश के चलते लगभग 3 करोड़ मतदाता, विशेषकर कमजोर वर्गों से आने वाले लोग, अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं।
दरअसल, विवाद के मूल में यह डर यह है कि बिहार के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा खास तौर पर ग्रामीण, आर्थिक रूप से वंचित और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच आवश्यक कागजी कार्रवाई तक पहुंच की कमी हो सकती है। दूरदराज के जिलों में, औपचारिक रिकॉर्ड रखने का काम ऐतिहासिक रूप से लापरवाही भरा रहा है,
जिसके कारण कई परिवारों के पास जन्म प्रमाण पत्र या अन्य आधिकारिक दस्तावेज नहीं हैं। प्रवासी मजदूर, जो राज्य के कार्यबल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। घर से दूर काम करते समय अपने माता-पिता के रिकॉर्ड पेश करने में असमर्थ हो सकते हैं।
वहीं, बिहार की राजनीति को करीब से जानने वालों के अनुसार, निर्वाचन आयोग देश में अवैध रूप से बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से आकर जो लोग रह रहे हैं, जिन्होंने मतदाता सूची में नाम दर्ज करवा लिया है। वैसे लोगों को मतदाता सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू की है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जो भी अवैध रूप से बिहार आकर बस गए हैं, उनका वोट विपक्ष को जाता है।
यही कारण है कि इंडिया गठबंधन के घटक दल हो या ओवैसी, इनको इस बात का डर सता रहा है कि मतदाता सूची से यदि इनका नाम कट गया तो उनका राजनीतिक रूप से नुकसान होगा। बिहार के सीमांचल के इलाके में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला वर्षों से सामने आ रहा है। पिछले 30 वर्षों में पूरे सीमांचल का समीकरण बदल गया है।
किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया में अल्पसंख्यकों की आबादी 40 फीसदी से 70 फीसदी तक हो चुकी है। यही कारण है कि वर्षों से इस इलाके में बांग्लादेशी घुसपैठियों की रोक की मांग उठती रही है। कई इलाकों से हिंदुओं के पलायन की भी खबर उठी थी। केंद्र सरकार ने जब पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कही थी तो बिहार में इस इलाके से भी विरोध के सुर उठे थे।
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद का वोट शेयर बढ़ा था। राजद को 23.11 फीसदी वोट मिले। भाजपा को 19.46 प्रतिशत ही वोट मिले, जदयू के खाते में 15.42 प्रतिशत वोट आया। 2024 लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा और जदयू ने 12-12 सीटें जीती। राजद ने 4 सीटें, कांग्रेस ने 3 सीटें और लोजपा (रा) ने 5 सीटें जीती हैं।
भाकपा-माले ने 2 सीटें जीती हैं, जबकि हम और एक निर्दलीय उम्मीदवार ने 1-1 सीट जीती है। जाति आधारित सर्वेक्षण आंकड़ों के अनुसार बिहार में करीब 17.70 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। वहीं, बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता अहम भूमिका अदा करते हैं।
इन इलाकों में मुस्लिम आबादी 20 से 40 प्रतिशत या इससे भी अधिक है। बिहार की 11 सीटें हैं, 10 से 30 फीसदी के बीच मुस्लिम मतदाता हैं। जानकारों का मानना है कि चुनिंदा क्षेत्रों में अगर एक निश्चित मात्रा में नाम कट जाएं तो मुकाबला कमजोर हो जाएगा। इस बीच विपक्षी पार्टियों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
इंडिया गठबंधन के नेताओं ने बीते बुधवार को नई दिल्ली में चुनाव आयोग के दफ्तर में पहुंच कर अपना ज्ञापन सौंपा था। इस दौरान राजद, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, भाकपा- माले, सपा समेत 11 पार्टियों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। विपक्षी नेताओं ने चुनाव आयोग के समक्ष अपनी बातें रखी।
वहीं शुक्रवार को बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने पटना में राज्य चुनाव पदाधिकारी से मुलाकात कर इसपर अपना पक्ष रखा था। तेजस्वी यादव ने कई मुद्दे उठाए थे और व्यावहारिक समस्याएं बताई थीं। तेजस्वी यादव आरोप लगा रहे हैं कि मतदाता सूची पुनरीक्षण के नाम पर चुनाव आयोग गरीबों का नाम मतदाता सूची से हटा रहा है।
उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग भाजपा के एजेंट के रूप में काम कर रहा है। और गरीबों का हक मारने की कोशिश की जा रही है। तेजस्वी ने कहा कि हार डर के चलते चुनाव आयोग को आगे करके भाजपा पीछे से यह सारा खेल खेल रही है। उन्होंने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग का मतदाता सूचि पुनरीक्षण "भ्रम, अनिश्चितता और दमन" से भरा हुआ है।
उन्होंने इसे "लोकतंत्र की नींव पर हमला" कहा है। तेजस्वी यादव ने कहा कि बिहार के आठ करोड़ मतदाताओं में से 59 फीसदी 40 साल या उससे कम उम्र के हैं। इसका मतलब है कि चार करोड़ 76 लाख लोगों को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। इस बीच राजद के मुख्य प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव ने कहा कि विधानसभा चुनाव में निश्चित तौर पर इसे मुद्दा बनाकर जनता को सचाई से अवगत कराया जाएगा।
चुनाव आयोग भाजपा एजेंट के तौर पर काम कर गरीबों को वोट के अधिकार से वंचित करना चाहती है। महाराष्ट्र के तर्ज पर यहां भी खेला की तैयारी की जा रही है। हालांकि, एनडीए के सहयोगी दलों की बेचैनी सतह पर नहीं आई है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने ऐसी आशंकाओं को खारिज करते हुए इसे चुनाव आयोग की 'रूटीन एक्सरसाइज' बताया है।
उन्होंने कहा कि विपक्ष गलतबयानी करके मतदाताओं को गुमराह करना चाहता है। साल 2003 में भी पुनरीक्षण महज 31 दिनों में हो गया था। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत चुनाव आयोग को मतदाता सूची की अखंडता सुनिश्चित करने का अधिकार है और साथ ही यह उसकी जिम्मेदारी भी है।
चुनाव आयोग ने इससे पहले 1952-56, 1957, 1961, 1965, 1966, 1983-84, 1987-89, 1992, 1993, 1995, 2002, 2003 और 2004 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में गहन संशोधन करने के लिए इन शक्तियों का प्रयोग किया है। बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में 7.8 करोड़ मतदाता हैं। इनमें से लगभग 60 फीसद यानी 4.96 करोड़ मतदाता ऐसे हैं,
जिन्होंने 1 जनवरी, 2003 के मतदाता सूची संशोधन के दौरान अपने नामों की पुष्टि की थी। इन मतदाताओं को केवल उस सूची का एक अंश प्रस्तुत करना होगा। बाकी बचे करीब 2.94 करोड़ मतदाताओं को सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र, पेंशन भुगतान आदेश, जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, शैक्षिक प्रमाण पत्र, जाति या भूमि रिकॉर्ड जैसे स्वीकृत दस्तावेजों की विस्तृत सूची में से कम से कम एक डॉक्यूमेंट जमा करना होगा।