अब वे 31 प्रतिशत मतदाता, जिन्होंने भाजपा को कुर्सी पर बिठाया था, मोहभंग की स्थिति में हैं। यदि 2019 के चुनाव में भाजपा जीते नहीं लेकिन सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे, तब भी सरकार बनाना उसके लिए मुश्किल होगा
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मुद्दा यह नहीं है कि शासन में कौन लोग हैं, बल्कि यह है कि वे करते क्या हैं. एक बार जब संवैधानिक संस्थानों की निष्पक्षता में दखल देने की शुरुआत हो जाती है तो भविष्य में किसी भी सरकार द्वारा पूर्वस्थिति बहाल करने की संभावना बहुत कम हो जाती है.
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अभी तक सैकड़ों आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा जा चुका है और सैकड़ों जेल में बंद हैं. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि शेख हसीना की दृढ़ इच्छाशक्ति का ही नतीजा है कि बांग्लादेश में आतंकवाद पर काफी हद तक काबू पाया जा चुका है.
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गंभीर मुद्दों को उठाने के बाद राहुल गांधी से राजनीतिक गंभीरता की उम्मीद की जा रही है, लेकिन आंख की कलाबाजियों के कारण उनका प्रयास केवल हंगामा खड़ा करने वाला दिख रहा है, जिसका एकमात्र मकसद वोट बटोरना हो सकता है।
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मायावती पर मुकदमा चल ही रहा है, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्नी भूपेंद्र हुड्डा भी अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं और उ.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्नी अखिलेश यादव से भी कहा जा रहा है कि तैयार रहो, तुम्हारे खिलाफ खदान घोटाले की जांच चल रही है और कहीं ऐसा न हो कि
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हिंदी पुस्तकों को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद रहेगा. दरअसल बड़ी संख्या में हिंदी भाषी होने के बावजूद अधिकांश लोगों में पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं है.
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भाजपा अखिलेश यादव और मायावती को काउंटर करने के लिए उनके खिलाफ पुराने मामलों को फिर से खोल सकती है. मायावती के खिलाफ भी आय से अधिक संपति के मामले दर्ज हैं और हो सकता है कि आने वाले दिनों में उनके खिलाफ भी सीबीआई के छापे पड़ें.
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