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कुलभूषण उपमन्यु का ब्लॉग: प्रकृति के साथ खिलवाड़ का नतीजा हैं हिमालय क्षेत्र की आपदाएं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: September 17, 2022 10:55 AM

वर्ष 1992 में भी डॉ एसजेड कासिम की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया गया था, जिसकी संस्तुतियां भी हिमालयी राज्यों की पारिस्थिकी अवस्था के आधार पर बनी थीं। 

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ठळक मुद्देहिमालय में बड़ी चौड़ी सड़कें अपने साथ भारी तबाही लेकर आती हैं, जिनका बनाने के पहले ध्यान ही नहीं रखा गया।मुख्यधारा का विकास मॉडल हिमालय क्षेत्र के अनुकूल नहीं है, जिसकी नकल करने के लिए हम मजबूर किए गए हैं।

इस वर्ष की बरसात पूरे देश के लिए तबाही लेकर आई है किंतु हिमालयी क्षेत्रों में जिस तबाही के दर्शन हुए हैं, वे अभूतपूर्व हैं। शिमला-सिरमौर से लेकर चंबा तक तबाही का आलम पसर गया है। सड़कें बंद हैं, चक्की का रेल पुल बह गया है। 18 से लेकर 20 अगस्त दोपहर तक, जो बारिश देखने को मिली, वह शायद ही आमतौर पर यहां होती हो। 

48 घंटे में ही धर्मशाला से सिहुंता घाटी तक 500 मिमी बारिश हो गई जबकि पूरे अगस्त में इस क्षेत्र में औसतन 349 मिमी से 600 मिमी बारिश होती है। कुल्लू जिले की स्थिति भी बहुत ही खराब दिखाई दे रही थी। यह वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन का परिणाम तो है ही, किंतु हिमालय में तापमान वृद्धि दर वैश्विक औसत से ज्यादा होने के कारण भी है। हिमालय की संवेदनशील परिस्थिति को देखते हुए लंबे समय से हिमालय के लिए अलग विकास मॉडल की मांग होती रही है। मुख्यधारा का विकास मॉडल हिमालय क्षेत्र के अनुकूल नहीं है, जिसकी नकल करने के लिए हम मजबूर किए गए हैं।

'नीति आयोग' ने 'हिमालयी राज्य क्षेत्रीय परिषद' का गठन करके एक तरह से हिमालयवासियों की समस्याओं और संभावनाओं को मैदानी क्षेत्रों से अलग दृष्टिकोण से देखने की उम्मीद और मांग को मान्यता देने की पहल की है, जिसका खुलेदिल से स्वागत तो किया ही जाना चाहिए। हिमालय की प्राकृतिक स्थिति बहुत संवेदनशील है और इसकी कुछ विशेषताएं हैं जिनका ध्यान रखे बिना किया जाने वाला हर विकास कार्य हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकीय व्यवस्था को हानि पहुंचाने का कारण बन जाता है। 

भले के नाम पर किया जाने वाला कार्य भी उल्टा पड़ जाता है जिसकी कीमत हिमालय-वासियों के साथ-साथ पूरे देश को हिमालय से प्राप्त होने वाली पर्यावरणीय सेवाओं में बाधा और ह्रास के रूप में चुकानी पड़ती हैं। वर्ष 1992 में भी डॉ एसजेड कासिम की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया गया था, जिसकी संस्तुतियां भी हिमालयी राज्यों की पारिस्थिकी अवस्था के आधार पर बनी थीं। 

उसके बाद विकास की जिस वैकल्पिक सोच को जमीन पर उतारने के लिए संस्थागत व्यवस्था खड़ी करने के सुझाव दिए गए थे, वे लागू नहीं हो सके और बात एक रिपोर्ट तक ही सिमट रह गई। 'नीति आयोग' ने 2017 में पांच 'कार्य समूह' (वर्किंग ग्रुप) विभिन्न मुद्दों को लेकर बनाए थे। इनकी रिपोर्ट अगस्त 2018 में आने के बाद यदि कुछ महीनों के भीतर ही 'हिमालयी क्षेत्रीय परिषद' का गठन कर दिया जाता तो माना जा सकता था कि सरकार इस दिशा में कुछ गंभीर है। हिमालय में बड़ी चौड़ी सड़कें अपने साथ भारी तबाही लेकर आती हैं, जिनका बनाने के पहले ध्यान ही नहीं रखा गया।

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