Batla House Encounter..जब चीख उठी थी दिल्ली13 साल पहले 13 सितंबर 2008 की वो शाम दिल्ली कभी नहीं भूल सकती। पूरे देश में दीपावली के जश्न की तैयारियां चल रही थीं। बाजार रंग-बिरंगी लाइटों.. झालरों से गुलजार थे तभी.. खून के छीटों ने बाजार को बंजर बना दिया.. दिल्ली बम धमाकों से दहल उठी थी। इन धमाकों में 30 बेकसूर लोगों ने जान गंवाई थी। 150 के करीब लोगों को इस धमाके ने गहरे जख्म भी दिए थे। देश की राजधानी को बारूद से छलनी करने आए आतंकियों की साजिश और फिर हुए खूनी हमले की किसी ने कल्पना नहीं की थी। इन सीरियल बम धमाकों से पहले दिल्ली पुलिस को एक ई मेल मिला था जिसमें लिखा था अगर वह इन धमाकों को रोक सकते हैं तो रोक लें।लेकिन ऐसा नहीं हुआ.. दिल्ली में घात लगाए बैठे आतंकियों के बारे में एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। देश का सुरक्षा तंत्र आतंकियों के नापाक मंसूबे को जब तक भांप पाता तब तक 30 निर्दोष लोगों की जान जा चुकी थी। इन धमाकों के साथ ही दिल्ली संगीनों के साये में थी। सुरक्षा एजेंसी और पुलिस की नजर उन जगहों पर जा टिकी थी जहां आतंकी छिपे हो सकते थे। इसके बाद शुरू हुआ सर्च ऑपरेशन.. दिल्ली की एक-एक संदिग्ध और संवेदनशील जगहों को खंगाला जाने लगा। चारों तरफ इस हमले की सुगबुगाहट थी। तभी जांच में जुटी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को आतंकियों के ठिकाने के बारे में बड़ी लीड मिली। यहां से बाटला हाउस एनकाउंटर को अंजाम दिए जाने की पटकथा तैयार होने लगी थी। हमले के 6 दिन बाद ही 19 सितंबर को आतंकी पुलिस की रडार पर थे और रडार की रेंज खत्म हो रही थी जामिया के बाटला हाउस में। खबर पक्की होने पर पुलिस ने बाटला हाउस के चप्पे-चप्पे पर निगरानी कड़ी कर दी थी। ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने का नक्शा तैयार होते ही पुलिस ने आतंकियों के ठिकाने पर चढ़ाई शुरू कर दी। सादे कपड़ों में बाटला हाउन के हर कोने पर पुलिसकर्मी तैनात थे। आतंकियों को पकड़ने के लिए बाटला हाउस में बिल्डिंग नंबर एल-18 के फ्लैट नंबर 108 को चारों तरफ से घेर लिया गया।सुबह के 10 बजकर 55 मिनट पर दिल्ली पुलिस के एसआई धर्मेंद्र कुमार कोट-पैंट और टाई लगाकर फोन कंपनी के सेल्समैन के लुक में फ्लैट का गेट खटखटाते हैं। दरवाजे पर दस्तक होते ही फ्लैट के अंदर आने वाली आवाज सन्नाटे में तब्दील हो जाती है। फ्लैट में मौजूद लड़के मना कर देते हैं और इतनी देर में सब इंस्पेक्टर धर्मेंद्र वहां का मुआयना कर लेते हैं। उन्हें चार लड़के कमरे में दिखाई देते हैं। एसआई ने जब इशारा किया कि ये लड़के हैं तो टीम को लीड कर रहे इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा सबसे आगे फ्लैट की तरफ बढ़ने लगे उनके पीछ हेड काउंसटेबल बलविंदर और बाकी के लोग पीछ थे। ये एल-18 के चौथी मंजिल पर पहुंचकर दरवाजे को खटखटाते हैं लेकिन इस बार दरवाजा नहीं खुलता बल्कि सीधे अंदर से फायरिंग होने लगती है। जवाब में पुलिस भी फायरिंग करती है। अचानक हुई फायरिंग में दो गोली इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को लगती है। एक उनके कंधे पर और एक पेट के पास। हवलदार बलवंत के हाथ में गोली लगी। गोली लगने के बाद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा गिर जाते हैं। करीब आधे घंटे तक चले इस ऑपरेश में फ्लैट से आतिफ अमीन और साजिद की लाशें मिलती हैं। मोहम्मद सैफ और जिशान जिंदा पकड़े जाते हैं। जबकि तीन वहां से भागने में सफल रहे। इन्हीं में से एक आरिज खान था। ये वही आरिज खान है जो एक दशक बाद पुलिस के हाथ लगा और इसके गुनाहों का बहीखाता कोर्ट ने तैयार कर लिया है। आरिज खान की सजा कोर्ट ने रिजर्व कर ली है 15 मार्च को उसे सजा सुनाई जाएगी।यहां मोहन चंद शर्मा का जिक्र करना जरूरी हो जाता है ऐसा न करना उनकी शहादत की बेजती करने के समान होगा। मोहन चंद शर्मा को जब गोली लगी तो उन्हें पास के होली फैमली हास्पिटल में एडमिट कराया गया। आठ घंटे इलाज के बाद उनकी मौत हो गई। उनकी मौत अधिक खून बहने के कारण हुई। पुलिस ने मोहन चंद्र शर्मा की मौत के लिए शहजाद अहमद को जिम्मेदार ठहराया। इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को 26 जनवरी, 2009 को मरणोपरांत अशोक-चक्र प्रदान किया गया। मोहन चंद शर्मा समेत उनकी पूरी टीम को गैलेंट्री अवार्ड से सम्मानित किया गया।