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यही है शोले के ब्लॉकबस्टर होने के 4 कारण, ये रहे सबूत

By खबरीलाल जनार्दन | Published: January 23, 2018 3:36 AM

लगभग 204 मिनट की फिल्म में 66 मिनट बाद गब्‍बर सिंह की एंट्री होती है। फिर वह शोले का सबसे मशहूर किरदार कैसे बना?

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'बाहुबली 2', 'दंगल', 'सुल्तान' और हालिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 'टाइगर जिंदा है' हिन्दी सिने इतिहास की बॉक्स ऑफिस पर सबसे सफल फिल्में हैं। लेकिन शोले का नाममात्र आने से इनकी चमक फीकी पड़ जाती है। अगर फिल्मों पर चर्चा हो रही हो और आप शोले की चिंगारी लगा भर दें, पूरी आग शोले के इर्द-गिर्द भभकती नजर आती है। क्या वजह है, जो 43 साल बाद भी यह फिल्म इतनी प्रासंगिक है। आज इसके निर्देशक रमेश सिप्पी का जन्मदिन है। इस मौके पर हम उनकी जिंदगी की उस फिल्म के हिट होने के कारण ढूंढ़ के लाए हैं, जिसके जवाब साल दर साल बढ़ते जाएंगे। 

अमेरिका और यूरोपीय सिनेमा में फिल्में बनाने का एक बड़ा मशहूर जॉनर है 'स्पैगेटी वेस्टर्न', 1960 के दशक में यह उभरा था। इस विधा (मसाला फिल्में) में बनी फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि यह सफल जरूर होती हैं। शोले की रिलीज के बाद भारत में 'करी वेस्टर्न' फिल्मों का चलन शुरू हुआ। फिल्मकार शेखर कपूर ने एक साक्षात्कार में कहा‌, "भारतीय ‌सिनेमा के ‌इतिहास को 'बिफोर शोले' और 'आफ्टर शोले' के तौर पर देखा जा सकता है।'' शोले 15 अगस्त, 1975 को रिलीज हुई थी। तब भारत में चल रही इंडियन न्यू वेव धारा के बरअक्स शोले ने मुख्य धारा के हिंदी सिनेमा में नए काल की शुरुआत की। 

43 सालों तक एक ही फिल्म का जादू बरकरार रहने के पीछे बहुत से कारण गिनाए जा सकते हैं। मसलन मुहावरों का रूप ले चुके शोले के संवाद, लोककथाओं में तब्दील हो गए उपकथानक, इसका एक्‍शन, कॉमेडी, रोमांस, ड्रामा, मेलोड्रामा, संगीत, तकनीक आदि। लेकिन करीब से देखने पर यह चार प्रमुख कारण नजर आते हैं-

शोले के किरदारों की विषमता

शोले के किरदारों में गजब की विषमता थी। वजह, तब फिल्म के लेखक सलीम खान और जावेद अख्तर को दिए गए पैसे भी हो सकते हैं। क्योंकि तब उन्हें इसके लिए 1 लाख रुपये का भुगतान किया गया था। मुद्रास्फीति की कसौटी पर कसें तो आज यह रकम 10 करोड़ से ज्यादा पहुंचती है। बस इस कहानी को लिखने के लिए सलीम-जावेद बाकायदे छह महीनों तक खुद को एक कमरे में कैद कर लेते थे। तब जाकर यह किरदार निकले।

शोले का ठाकुरः ठाकुर का बेहद सभ्य किरदार था। उसके कपड़े लगातार साफ-सुथरे रहते। उसकी हवेली में हर सामान उचित जगह पर रखा होता। लड़ाई के दृश्यों में भी ठाकुर के बाल नहीं बिगड़ते। किसी नौकर की कितनी इज्जत हो सकती है यह ठाकुर का परिवार समझाता है।

शोले का गब्बरः पथरीले भरकों में रहने वाला, गंदी कमीज, बढ़ी हुई दाढ़ी, खैनी चबाकर पिच्च से थूकता गब्‍बर। फूहड़ और सैडिस्टिक किरदार। कोई डाकू सरदार अपनी गैंग के दूसरे डाकुओं को कितना डरा सकता है, गब्बर इसकी प्रतिमूर्ति था।

शोले का जयः जय बेहद शांत किरदार था। कम बोलने वाला और अपने काम पर ध्यान देने वाला। और उसके अंतर्मुखी होने के पीछे कोई कारण नहीं होता। इसलिए उसकी हर बार बेहद नैसर्गिक लगती है।

शोले का वीरूः वीरू एकदम उत्साही और दिलफेंक किरदार था। वह बहिर्मुखी क्यों था, इसके पीछे कोई कहानी नहीं थी, इसी लिए उसकी प्रतिक्रियाएं बेहद प्राकृतिक लगती हैं।

शोले की बसंतीः बसंती बेहद बड़बोली थी। उसके कपड़े भी बेहद भड़कीले होते। वह किसी भी चुनौती के लिए तैयार रहती।

शोले की राधाः एकदम कम बोलने वाली विधवा। इसकी एक पुरानी कहानी होती है। पहले वह बेहद हंसती-खिलखिलाती। पर दूसरे चरण की उसकी जिंदगी एकदम उलट होती। पूरी फ‌िल्म सफेद साड़ी में लिपटी रही।

इनमें सूरमा भोपाली, अंग्रेजों के जमाने के जेलर के किरदारों को जोड़ दें तो इतनी विविधता एक ही फिल्म से मिल जाती है कि दर्शक को भरा-भरा महसूस होता है। उसको मोहलत ही नहीं मिलती फिल्म देखने के अलावा कुछ और करने की। इस फिल्म ने मल्टीस्टारर फिल्मों के लिए नया पट खोल दिया था।

बगैर एक कतरा खून के बर्बर हिंसा के दृश्य

शोले जिस जॉनर की फिल्म थी, उसमें बहुत मोहलत थी कि खूब खून-खराबा दिखाया जाए। लेकिन लेखक-निर्देशक पूरी फिल्म में एक कतरा खून नहीं बहाया। गांव के इमाम साहब के बेटे अहमद की मौत का दृश्‍य भयावह है। लेकिन उसकी कलात्मकता देखिए खून का एक कतरा नहीं बहता। गब्बर ठाकुर के हाथ काट देता है, लेकिन निर्देशक पर्दे पर खून की एक बूंद नहीं गिराता। इसका असर ये होता है कि फिल्म पूरी तरह से पारिवारिक हो जाती है। नतीजन बच्चों में भी यह उतनी मशहूर हुई, जितनी सिनेमा के चाहने वालों में।

ऐसे करने में कुछ सीन अखरते भी हैं। जब गब्बर, ठाकुर के परिवार लोगों को गोलियों से भूनता है तो उनके शरीर पर खून के छींटें भी नहीं उड़ते और वे वहीं गिर पड़ते हैं। लेकिन अगले ही दृश्य में बच्चे को गोली मारने के दृश्य में गब्बर और उसकी बंदूक दिखाकर यह स्‍थापित कर दिया जाता है कि वे खून में सनी हिंसा दिखाना ही नहीं चाहते। गांव में लड़ाई के बड़े-बड़े दृश्य हैं, लेकिन कभी गौर कीजिएगा उनमें खून नहीं बहता किसी का। यह फ‌िल्म की बड़ी कामयाबी थी।

विकराल, असभ्य पर गरिमाई गब्बर

लगभग 204 मिनट की फिल्म में 66 मिनट बाद गब्‍बर सिंह की एंट्री होती है। लेकिन जब फिल्म खत्म होती है, तो सबसे ज्यादा दिमाग में गब्बर रह जाता है। उसकी अपनी वजहें थीं। गोया हिन्दी फिल्मों के तब तक के विलेन और गब्बर के किरदार में अंतर। इससे पहले मदर इं‌‌डिया का बिरजू (1957), जिस देश में गंगा बहती है का राका (1960), मेरा गांव मेरा देश का जब्बर सिंह (1971) या कच्चे धागे का ठाकुर लक्ष्मण सिंह (1973) डाकू किरदारों के आदर्श थे।

लेकिन गब्बर के मैनरिज्म और कॉस्ट्यूम से क्रूरता झलकती थी। वह किसी खास कारण के लिए डाकू नहीं बना था। गब्बर ने किसी मकसद के लिए डकैती ‌को नहीं चुना, बल्‍कि उसका मकसद ही डकैती ‌थी। दूसरी ओर बिरजू का रोमांटिक शेड, राका का नर्म दिल और जब्‍बर की खूबसूरती गब्‍बर में नहीं थी।

इन सब के इतर, अगर गब्बर के चरित्र की बात करें तो वह चरित्रहीन नहीं था। बसंती के आशिक को सामने बांधने के बाद वह उसपर टूट नहीं पड़ता। वह बसंती को छूता है। बसंती के शरीर पर टिप्पणी (किस चक्की का आटा खाती हो) करता है। वह अपनी मांद का शेर होता है। कुछ भी कर सकता है। लेकिन बसंती का शरीर नहीं नोचता। वह मनोरंजन चाहता है। वह बसंती से डांस करने के लिए कहता है। क्योंकि उसने सुन रखा था बसंती डांस अच्छा करती थी। शायद यही कारण है कि किसी को गब्बर बुलाने पर वह चिढ़ता नहीं। जबकि यह सबसे क्रूर विलेन का नाम है।लेखक जावेद अख्तर एक टीवी इंटरव्यू में बताते हैं कि एक शख्स एक दिन सुबह टहलते वक्त उनसे मिले, और उसने करीब-करीब झगड़ने के अंदाज में कहने लगे, 'आप लोगों ने गब्बर को जानबूझ कर गलत दिखाया है। वह एक बेहद अच्छा इंसान था।' एक विलेन की इस गरिमा ने उसे पॉपुलर बनाने में अहम किरदार निभाया।

70 एमएम का सिनेमा की शुरुआत शोले से

शोले से पहले दर्शकों को 70 एमएम पर सिनेमा देखने का अनुभव नहीं था। इससे पहले 35 एमएम पर सिनेमा चलता था। निर्देशक रमेश सिप्पी और उनके पिता व शोले के निर्माता जीपी सिप्पी 70 एमएम पर शूट करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिनेमेटोग्राफर दवेचा से आग्रह किया। देवेचा ने सीधा मना कर दिया। वह तकनीकी को बखूबी समझते थे। लेकिन रमेश अड़े थे। इसका एक ही तरीका था, हर सीन को दो बार शूट करना पड़ा। लेकिन फिल्म 70 एमएम पर ही बनी।

श्‍ाोले क्वीज खेलेंः शोले QUIZ: शर्त लगा लीजिए, गूगल कर के भी दसों सही जवाब शायद निकाल पाएं

यह भी पढ़ेंः किन-किन हॉलीवुड फिल्मों से अकल लगाकर 'नकल' की गई थी शोले

70 एमएम पर बनने का मतलब होता है वीडियो में एक-एक फ्रेम साफ-साफ दिखना। एक सेकेंड का वीडयो 24 फ्रेम से मिलकर बनता है। यह फ्रेम 70 एमएम होने के चलते दृश्यों का रेज्यूलेशन बढ़ जाता है। शोले से पहले 35 एमएम पर सिनेमा बनता था। उसमें हिलने-डुलने वाले दृश्यों में साफपन नहीं होता था। इसका ताल्लुक, दूर के दृश्यों को साफ रिकार्ड करने से भी था। शोले में कई दृश्य वाइड हैं। इनमें एक लंबा कैनवास दिखाना होता था। अगर यह फिल्म 35 एमएम पर होती तो शायद ऐसा प्रभाव नहीं छोड़ पाती। ऐसा करने पर लो-एंगल कैमरे के दृश्‍य जबर्दस्त असरकार रहे।

यहां आरडी बर्मन ने लेमोटिफ के इस्तेमाल का उल्लेख भी जरूरी है। उन्होंने गब्बर के पर्दे पर होने के वक्त एक ऐसा लेमोटिफ बनाया था, जो विलेन की एंट्री का संकेत था। अनिरुद्ध भट्टाचार्यजी और बालाजी विट्ठल ने अपनी किताब 'आरडी बर्मनः द मैन, द म्यूजिक' में लिखा है, 'गब्बर के लेमोटिफ के लिए आरडी बर्मन ने सेलो और हाइड्रोफोन म्यूजिक का प्रयोग किया।' यह एक खास किस्म का प्रयोग था। इससे पहले ऐसा कुछ सोचा ही नहीं गया था कि किसी खास शख्स के पर्दे पर आने के संकेत के तौर नेपथ्य में चलने वाला संगीत कुछ इशारा करेगा। भारतीय समाज में किसी के आने न आने के लिए बाकायदे उद्घोष होते रहे हैं। लेकिन इसी बात का अनोखा प्रयोग आरडी बर्मन ने किया था।  

पठारों के बीच बसे रामगढ़ जा पहुंचे जय-वीरू और वहां पहले से बसे ठाकुर, बसंती, रहीम चाचा, मौसी, राधा, अहमद, काशीराम, धौलिया और राम लाल अब अमर हो गए हैं। वे अपने साथ सूरमा भोपाली और अंग्रेजों के जमाने के जेलर को कलजयी बना गए। अपनी मांद से गब्बर ने दहाड़ा था, 'पचास-पचास कोस दूर जब बच्चा रोता है तो मां कहती है सो जा, वरना गब्बर जाएगा। तब कालिया या सांभा की इतनी हिम्मत नहीं हुई, पर उनके मन में यह बात जरूर रही होगी, 'सरदार! आपका खौफ बस पसाच कोस दूर तक नहीं पचास सालों तक रहेगा'।

टॅग्स :अमिताभ बच्चनधर्मेंद्रजया बच्चनहेमा मालिनीसंजीव कुमार
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