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आलोक मेहता का ब्लॉगः चीन से फारूक की खानदानी मोहब्बत देश के लिए घातक

By आलोक मेहता | Updated: October 19, 2020 13:13 IST

भारत में उदार लेकिन राष्ट्र हित के दृढ़ निश्चयी प्रधानमंत्नी लालबहादुर शास्त्नी सहित सरकार, संसद और संपूर्ण देश विचलित और क्रोधित हुआ. शास्त्नीजी ने संसद में विश्वास दिलाया कि इस अपराध के लिए शेख अब्दुल्ला पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी. सरकार ने तत्काल उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया.

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फारूक अब्दुल्ला द्वारा जम्मू-कश्मीर में पुराने दिन लौटाने के लिए चीन से सहायता लेने के बयान पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. चीन से उनके खानदान का गहरा रिश्ता रहा है. वह तो भारत सरकार की उदारता रही है कि हर बार उनकी दगाबाजी के बावजूद सत्ता सुख लेने दिया. जनवरी 1965 में कराची में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्नी ने चीन के विदेश मंत्नी को दिए रात्रि भोज के अवसर पर घोषणा की थी कि ‘जल्द ही कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए शेख अब्दुल्ला और चीन के प्रधानमंत्नी चाउ एन लाइ के बीच मुलाकात होगी. चीन शेख साहब को निमंत्रित करेगा.’ 

पाकिस्तान तो उस समय शेख को कश्मीर की निर्वासित सरकार के मुखिया की तरह मान रहा था. इस ऐलान पर अमल दो महीने बाद हो गया. 31 मार्च 1965 को शेख अब्दुल्ला और चाउ एन लाइ की लंबी गुप्त षड्यंत्न वाली बैठक अल्जीयर्स में हुई. इस बैठक के बाद चीन ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वह कश्मीर के भारत से अलग होने के स्वनिर्णय का पूरा समर्थन करेगा. शेख ने भी इस समर्थन का स्वागत करते हुए शुक्रिया अदा किया.

इधर भारत में उदार लेकिन राष्ट्र हित के दृढ़ निश्चयी प्रधानमंत्नी लालबहादुर शास्त्नी सहित सरकार, संसद और संपूर्ण देश विचलित और क्रोधित हुआ. शास्त्नीजी ने संसद में विश्वास दिलाया कि इस अपराध के लिए शेख अब्दुल्ला पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी. सरकार ने तत्काल उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया. फिर 8 मई को उनके भारत में प्रवेश करते ही हवाईअड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया. अब्दुल्ला खानदान का मददगार पाकिस्तान इससे तिलमिलाया और उसने न केवल सरकारी स्तर पर इसका विरोध किया, बल्कि 20 मई को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शिकायत दर्ज की. 

दूसरी तरफ उसने कश्मीर पर सैन्य हमले की तैयारी शुरू कर दी. वैसे भी भुट्टो का आका सैनिक तानाशाह जनरल अयूब खान राष्ट्रपति की कुर्सी पर था. चीन की छत्नछाया में अयूब खान ने कश्मीर से कच्छ तक के मोर्चे पर सैनिक हमले शुरू किए, जो अगले महीनों में खुले युद्ध में बदल गए. सवाल यह है कि क्या इस बार भी फारूक अब्दुल्ला पाकिस्तान-चीन के हमलों से कश्मीर को भारत से अलग करने के षड्यंत्न की तैयारी कर चुके हैं?

नेहरू, शास्त्नी, इंदिरा गांधी के सत्ता काल में दगाबाजियों और शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के कई दौर रहे. बाद में केंद्र सरकारों ने भारतीय संविधान के दायरे और शपथ के साथ शेख के नवाबजादे फारूक अब्दुल्ला और फिर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को कश्मीर में राज करने के अवसर दिए हैं. इसका लाभ कश्मीर की भोली-भाली गरीब जनता को तो नहीं मिला, लेकिन फारूक परिवार और उनके नजदीकी साथियों को अरबों रुपयों की संपत्ति जुटाने, पाकिस्तान और चीन से रिश्ते रखने, आतंकवादी संगठनों को पर्दे के पीछे और जरूरत होने पर राज्य सरकार से मदद करने का मजा मिला. वास्तव में अब्दुल्ला परिवार राजनीति और कश्मीर के नाम पर केंद्र सरकारों से सौदेबाजी में लगा रहता है.

अब जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने के संसद के निर्णय को लागू होने के साल भर बाद वापसी की मूर्खतापूर्ण मांग के पूरी नहीं होने का अहसास शायद फारूक सहित अन्य नेताओं को भी है. लेकिन इस बहाने वे अपने काले कारनामों की फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल देने, जेल नहीं भेजने की दुहाई दे रहे हैं. भ्रष्टाचार के मामले में यदि लालू यादव या ओमप्रकाश चौटाला जेल जा सकते हैं तो जम्मू-कश्मीर या संवेदनशील सीमावर्ती पूर्वोत्तर राज्य के नेताओं को क्या अदालतें अपराध सिद्ध होने पर भी माफकर देंगी?

इसलिए मुद्दा कश्मीर के विकास का होना चाहिए. जम्मू-कश्मीर के युवा शांति के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पर्यटन विकास की योजनाओं पर अमल चाहते हैं. फारूक और महबूबा या उनके समर्थक भारत विरोधी संगठनों की सारी धमकियों के बावजूद कश्मीर में कोई आग नहीं लग पाई है. दोनों महीनों तक सभी सुख-सुविधाओं के साथ घरों में नजरबंद रहकर हाल में साथ बैठने निकलने लगे हैं इसलिए उन्हें न्यायालयों और जनता की अदालत के फैसलों का इंतजार करना चाहिए.

टॅग्स :फारूक अब्दुल्लाजम्मू कश्मीरचीन
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