हर साल मई महीने के पहले मंगलवार को पूरी दुनिया में अस्थमा जैसी गंभीर और लंबे समय तक चलने वाली सांस की बीमारी को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से ‘द ग्लोबल इनिशिएटिव फॉर अस्थमा’ (जीआईएनए) द्वारा ‘विश्व अस्थमा दिवस’ मनाया जाता है. इस वर्ष यह दिवस 6 मई को ‘श्वसन उपचार को सभी के लिए सुलभ बनाना’ थीम के साथ मनाया जा रहा है.
इस थीम के माध्यम से अस्थमा के इलाज में उपयोग होने वाली आवश्यक दवाओं, विशेष रूप से इनहेल्ड कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है ताकि अस्थमा से होने वाली अनावश्यक मौतों और स्वास्थ्य जटिलताओं को रोका जा सके. यह थीम खासतौर पर स्वास्थ्य सेवाओं को साक्ष्य-आधारित इलाज को प्राथमिकता देने और अस्थमा पीड़ितों को समान स्तर पर इलाज देने के लिए प्रेरित करती है.
वर्तमान वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि आज दुनिया में 33 करोड़ से अधिक लोग अस्थमा से ग्रस्त हैं और प्रतिवर्ष लगभग 4.61 लाख लोग इस रोग के कारण जान गंवा देते हैं, जिनमें से लगभग 42 प्रतिशत मौतें केवल भारत में होती हैं जबकि भारत में अस्थमा से पीड़ित लोगों की संख्या करीब तीन करोड़ के आसपास बताई जाती है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा गंभीर चिंता इस बात की है कि यहां लगभग 90 प्रतिशत मरीजों को समय पर सही और गुणवत्तापूर्ण इलाज नहीं मिल पाता.
यही कारण है कि भारत में अस्थमा मृत्यु दर वैश्विक स्तर की तुलना में काफी अधिक है. बच्चों में भी अस्थमा की समस्या तेजी से बढ़ रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि दो दशक पहले की तुलना में बच्चों में अस्थमा के मामलों में कई गुना वृद्धि हुई है. खासतौर पर फास्ट फूड की आदतें, शहरीकरण और घरेलू प्रदूषण जैसे कारक इसमें प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं. बच्चों में अस्थमा के प्रकार भी अलग-अलग पाए जाते हैं, जैसे अर्ली व्हीजर, मॉडरेट व्हीजर और पर्सिस्टेंट व्हीजर. कुछ मामलों में यह समस्या किशोरावस्था में समाप्त हो जाती है लेकिन कई बार यह युवावस्था में दोबारा शुरू हो जाती है या जीवनभर बनी रहती है.
नेशनल कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजिशियन और इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बच्चों में अस्थमा के तेजी से बढ़ने का एक बड़ा कारण डस्ट माइट्स हैं, जो घरों में तकिये, गद्दे और कालीनों में अधिक मात्रा में पाए जाते हैं. जीआईएनए और डब्ल्यूएचओ लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अस्थमा जैसी पुरानी बीमारी के लिए न केवल जागरूकता जरूरी है बल्कि एक ऐसी वैश्विक रणनीति की भी आवश्यकता है, जो हर आयु वर्ग के मरीज को सही समय पर सुलभ इलाज उपलब्ध करा सके.
भारत जैसे विकासशील देशों में अस्थमा की चुनौती इसलिए भी गंभीर है क्योंकि यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली सीमित संसाधनों पर आधारित है और ग्रामीण तथा गरीब आबादी के लिए श्वसन संबंधी दवाएं सुलभ नहीं होती. ज्यादातर इनहेलर या अन्य उपचार महंगे होने के कारण कई मरीज उपचार से वंचित रह जाते हैं.
साथ ही सामाजिक कलंक, जानकारी की कमी और सही समय पर निदान न होने के कारण रोगी इलाज नहीं करा पाते, जिससे बीमारी गंभीर हो जाती है. विशेषज्ञों का कहना है कि अस्थमा को समय रहते पहचान कर यदि सही इलाज किया जाए तो मरीज एक सामान्य जीवन जी सकता है.