अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गुस्से में भारत को आईना दिखाया है. इसके लिए हिंदुस्तान चाहे तो उनका शुक्रिया अदा कर सकता है. नागपुर में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने आयात कम करने और निर्यात बढ़ाने पर जोर दिया है. आम अवाम उनको भी धन्यवाद देने में कंजूसी क्यों करे? उन्होंने अपने दल को भी नीतिगत सुझाव दिया है.
जब वे कहते हैं कि दुनिया पर दादागीरी करने वाले मुल्क आर्थिक रूप से मजबूत हैं तो उनका आशय वास्तव में यह नहीं रहा होगा कि भारत भी अपनी दादागीरी इसी तरह दिखाए. इसीलिए उन्होंने कहा कि संसार पर धौंस जमाने के लिए नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति विश्व कल्याण पर जोर देती है, इसलिए भारत को सौ फीसदी अपने पैरों पर खड़े होने की जरूरत है.
दरअसल गडकरी के संबोधन के पीछे कोई नई बात नहीं छिपी है. स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सबसे अधिक स्वावलंबन की जरूरत बताई थी. स्वदेशी आंदोलन और नमक सत्याग्रह जैसे आंदोलनों का मकसद क्या था? यही कि अगर हिंदुस्तान आत्मनिर्भर हो गया तो हर हाल में आजादी मिलेगी. उनका ग्राम स्वराज संदेश तो यही था.
इस पुस्तक में वे लिखते हैं, ‘‘अगर भारत में व्यापार के माध्यम से कोई भी वस्तु विदेश से नहीं लाई गई होती तो हमारी भूमि में शहद और दूध की नदियां बह रही होतीं. लेकिन यह तो होना नहीं था...जब तक भारत आत्मनिर्भर नहीं हो जाता, तब तक यह आशा नहीं की जा सकती कि वह इंग्लैंड या किसी दूसरे देश के लिए जिए. वह अपने लिए तभी जी सकता है जब वह अपनी जरूरत की सारी चीजें पैदा करे.
मैं किसी भी माल पर सख्त आयात कर लगाने के पक्ष में हूं, जिसके आयात से भारत को नुकसान होता हो. नटाल ब्रिटिश उपनिवेश है किंतु उसने एक अन्य ब्रिटिश उपनिवेश मॉरीशस से आने वाली शक्कर पर तगड़ा आयात कर लगाकर अपनी शक्कर की रक्षा की थी.’’ लेकिन गुलाम भारत ही अपने सूती वस्त्र उद्योग की रक्षा नहीं कर पाया था.
करीब ढाई सौ साल पहले भारत के सूती कपड़े के निर्यात से समूचे यूरोप की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई थी. (हॉलैंड को छोड़कर) उसके बाद इंग्लैंड ने भारतीय कपड़े पर 300 से 400 प्रतिशत आयात कर लगा दिया था. लंदन की एक महिला के पास से 1760 में भारतीय रुमाल बरामद हुआ था तो उसे 200 पौंड जुर्माना भरना पड़ा था.
इन्ही उदाहरणों ने संभवतया महात्मा गांधी को स्वदेशी आंदोलन के लिए मजबूर किया होगा. पर, आज भारत ने ही महात्माजी की इस बात को भुला दिया है. न केवल भुलाया, बल्कि उनके संदेशों के उलट आचरण किया. इसी का परिणाम है कि अमेरिका कारोबारी झटका देने पर उतारू है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की नीतियों में महात्मा गांधी की झलक दिखाई देती रही. बाद में आत्मनिर्भरता का सूरज डूबता गया और भारत की चमक जुगनू की मानिंद मद्धिम पड़ती गई. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तो शपथ लेते ही न्यूनतम आयात का नारा दिया था.
पहली पंचवर्षीय योजना लागू करते समय उन्होंने कहा था, ‘‘भारत का दूसरे देशों पर निर्भर रहना अच्छा नहीं है. हमें भारत का औद्योगीकरण करना है. यह जितनी जल्दी हो जाए, उतना ही अच्छा है.’’ उन्होंने औद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ाने के लिए प्रशांत चंद्र महालनोबिस को 1949 में मंत्रिमंडल का मानद सलाहकार नियुक्त किया.
उन्होंने दूसरी पंचवर्षीय योजना तक अपना शोध मार्च 1954 में सौंपा. वे यूरोप और पश्चिम की यात्रा करके आए थे. उनकी रिपोर्ट चमत्कारी थी. उसमें 8 उद्देश्य थे. इनमें खास थे- तीव्र विकास दर हासिल करना, आर्थिक आत्मनिर्भरता की नींव मजबूत करना, भारी उद्योगों का जाल बिछाना और कुटीर उद्योगों को घर-घर पहुंचाना.
नेहरूजी ने कहा कि हम भारी उद्योग और स्टील उद्योग में विदेश पर निर्भर नहीं रहेंगे. इस नीति का फायदा हुआ. नतीजा यह निकला कि 1950 में भारत 89.8 फीसदी उपकरण, भारी मशीनें और उनके कलपुर्जे आयात करने पर मजबूर था, लेकिन 1960 में यह आयात घटकर 43 प्रतिशत रह गया. हैरतअंगेज आंकड़ा है कि हिंदुस्तान को 1974 में सिर्फ 9 फीसदी आयात करना पड़ा.
सारा संसार भारत की आत्मनिर्भरता की रफ्तार देखकर दंग था. भारत ने विकसित देशों पर निर्भरता करीब-करीब समाप्त कर दी थी. इसके बाद भी भारत में आयात को लगातार दुर्बल बनाने का प्रयास होता रहा. इंदिरा गांधी के पद संभालने के शुरुआती दौर में भारत को निर्यात से जितनी कुल आमदनी होती थी, उसका 75 फीसदी तो तेल खरीदने पर ही चला जाता था.
इसको कुछ यूं समझ सकते हैं कि भारत का घरेलू तेल उत्पादन एक करोड़ 5 लाख टन था और हम 2 करोड़ 6 लाख टन तेल खरीदते थे. लेकिन चमत्कार ही था कि 1985 तक भारत का घरेलू तेल उत्पादन 2 करोड़ 90 लाख टन पार कर चुका था. इसका अर्थ यह कि निर्यात से हुई कुल आमदनी के 33 फीसदी धन से हम केवल तेल खरीदते थे.
गुजरात में तेल के बड़े भंडार मिले तो 19 मार्च 1970 को इंदिरा गांधी ने एक साजिश का भंडाफोड़ किया था कि कुछ परदेसी ताकतें भारत को तेल उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं होने देना चाहतीं. आज भी यह सिलसिला चल रहा है. 21 दिसंबर 1971 को योजना आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘‘हमें आत्मनिर्भरता की रफ्तार तेज करने की जरूरत है.
विदेशी सहायता हमारी जिंदगी का स्थाई अंग नहीं हो सकती. असल में बड़े देशों ने विदेशी सहायता को हथियार बनाया और उन्होंने कुछ ऐसा प्रपंच रचा, जिससे मदद पाने वाले देश के संकट में होने पर उसके खिलाफ कदम उठा सकें.’’ अब नितिन गडकरी ने आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने का जो नारा दिया है, उससे स्पष्ट है कि भारत अपनी नीति पर कायम नहीं रह सका. अमेरिका इसी का लाभ उठा रहा है.