इस बार जाड़ा पड़ने से बहुत पहले, जब दिल्ली हर बारिश के बाद डूब रही है, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण नियंत्रण के लिए गठित वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) को यह बताने के लिए कहा कि सर्दियों में प्रदूषण में बेतहाशा बढ़ोत्तरी से कैसे निपटेगा. जब इस बारे में कार्य योजना की बात हुई तो दिल्ली सरकार का 'विंटर प्लान' के नाम पर एक नया शिगूफा सामने आ गया- कृत्रिम बरसात.
इससे पहले सम-विषम वाहन संचालन और फिर स्मॉग टावर को लेकर विज्ञापनों से ऐसा प्रचार होता रहा है कि बस अब दिल्ली की हवा साफ हुई. उन प्रयोगों के बुरी तरह असफल होने के बाद अब नकली बरसात को राम-बाण बनाकर प्रचारित किया जा रहा है. असल यह समझना होगा कि पर्यावरण से जुड़ी किसी भी समस्या का संपूर्ण निराकरण किसी तकनीकी में नहीं, बल्कि आत्मनियंत्रण में छुपा है.
तकनीकी कुछ तात्कालिक राहत दे सकती है लेकिन वह निराकरण नहीं है. जिस कृत्रिम बरसात का झांसा दिया जा रहा है, उसकी तकनीक को समझना जरूरी है. इसके लिए हवाई जहाज से सिल्वर-आयोडाइड और कई अन्य रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है, जिससे सूखी बर्फ के कण तैयार होते हैं. असल में सूखी बर्फ ठोस कार्बन डाईऑक्साइड ही होती है.
सूखी बर्फ की खासियत होती है कि इसके पिघलने से पानी नहीं बनता और यह गैस के रूप में ही लुप्त हो जाती है. यदि परिवेश के बादलों में थोड़ी भी नमी होती है तो यह सूखी बर्फ के कणों पर चिपक जाते हैं और इस तरह बादल का वजन बढ़ जाता है, जिससे बरसात हो जाती है. एक तो इस तरह की बरसात के लिए जरूरी है कि वायुमंडल में कम से कम 40 फीसदी नमी हो, फिर यह थोड़ी सी देर की बरसात ही होती है.
इसके साथ यह खतरा बना रहता है कि वायुमंडल में कुछ ऊंचाई तक जमा स्मॉग और अन्य छोटे कण फिर धरती पर आ जाएं. साथ ही सिल्वर आयोडाइड, सूखी बर्फ के धरती पर गिरने से उसके संपर्क में आने वाले पेड़-पौधे, पक्षी और जीव ही नहीं, नदी-तालाब पर भी रासायनिक खतरा संभावित है. वैसे भी दिल्ली के आसपास जिस तरह सीएनजी वाहन अधिक हैं, वहां बरसात नए तरीके का संकट ला सकती है.
विदित हो सीएनजी दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड और नाइट्रोजन की ऑक्सीजन के साथ गैसें जिन्हें 'आक्साइड ऑफ नाइट्रोजन' कहा जाता है, का उत्सर्जन होता है. चिंता की बात यह है कि 'आक्साइड ऑफ नाइट्रोजन' गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिल कर तेजाबी बारिश कर सकती है. यह वैश्विक रूप से प्रामाणिक तथ्य है कि कृत्रिम तरीके से बरसात करवाना कई बार बहुत भारी पड़ता है.