Co-operative Bank: देश में सहकारी बैंकों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। बड़ी संख्या में सहकारी बैंक डूब चुके हैं और कुप्रबंधन तथा भ्रष्टाचार का यही आलम रहा तो जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों-करोड़ों रुपयों के डूब जाने का खतरा है। जिला सहकारी बैंकों की दुर्दशा का सिलसिला जारी रहा तो कृषि भी संकट में आ जाएगी तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का चक्र ठप होने का खतरा पैदा हो जाएगा़ वित्त मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक आर्थिक अराजकता के मामले में महाराष्ट्र के सहकारी बैंकों ने देश के दूसरे राज्यों के सहकारी बैंकों को पीछे छोड़ दिया है.
महाराष्ट्र के 31 जिला सहकारी बैंकों का डूबत कर्ज (एनपीए) 11024 करोड़ और महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक का एनपीए 3082 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. कुल मिलाकर 14107 करोड़ रुपए की कर्ज राशि डूबत खाते में डाल दी गई है. देश में 338 जिला सहकारी बैंक हैं. इनमें से 120 बैंकों का एनपीए 10 प्र.श. से ज्यादा है.
एनपीए की यह रकम 36957 करोड़ रुपए है जिसमें से 14107 करोड़ रुपए के साथ महाराष्ट्र के सहकारी बैंकों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है. देश में 34 राज्य सहकारी बैंक भी हैं जो जिला सहकारी बैंकों की मातृसंस्था के रूप में काम करते हैं. इनमें से 7 राज्य सहकारी बैंकों का एनपीए 10 प्र.श. से ऊपर पहुंच गया है.
सहकारिता आंदोलन को मजबूत बनाने में सहकारी बैंकों की भूूमिका महत्वपूर्ण रही है. इन बैंकों के माध्यम से कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बहुत मजबूती मिली. देश की अधिकांश आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर पूरी तरह निर्भर है. इस आबादी की कृषि संबंधी व्यवसाय तथा निजी एवं पारिवारिक जरूरतों को बहुत कुछ हद तक जिला ग्रामीण सहकारी बैंक पूरा करते हैं.
किसान, कृषि मजदूर और ग्रामीण आबादी अपनी बचत जिला सहकारी बैंकों में जमा करती है और वहीं से कर्ज लेकर अपनी जरूरतों को भी पूरा करती है. एक तरह से सहकारी बैंक और भारत की ग्रामीण आबादी एक-दूसरे के हाथ में हाथ डालकर चलते हैं. इसीलिए जिला सहकारी बैंकों की आर्थिक सेहत अच्छी होना बहुत जरूरी है.
यदि ये बैंक कमजोर हो गए तो ग्रामीण भारत की जनता की आर्थिक जरूरतों को संभालने वाला मजबूत स्तंभ ढह जाएगा. इससे कृषि क्षेत्र को भी चौपट होते देर नहीं लगेगी क्योंकि किसान फसल के लिए अमूमन सहकारी बैंकों से ही कर्ज लेता है. वह खेती के लिए माैसम जितना ही सहकारी बैंकों पर निर्भर रहता है.
सहकारी बैंक डूब गए तो उसके सामने खेती के लिए संसाधन जुटाने का संकट पैदा हो जाएगा. इसके अलावा सहकारी बैंकों में जमा किसानों तथा अन्य ग्रामीण नागरिकों की जमापूंजी डूब गई तो गांवों में आर्थिक कारोबार चौपट हो जाएगा. इससे देश की अर्थव्यवस्था को भी तगड़ा झटका लगेगा. देश की अर्थव्यवस्था को ग्रामीण क्षेत्र का मजबूत सहारा है.
ग्रामीण अर्थव्यवसथा की मजबूती पर हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था की सेहत निर्भर करती है. अब सवाल यह उठता है कि राज्य सहकारी बैंकों तथा जिला सहकारी बैंक अपने कर्ज की वसूली क्यों नहीं कर पा रही है? उनका एनपीए इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? इसके लिए आर्थिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिक हस्तक्षेप सबसे ज्यादा जिम्मेदार है.
सहकारी बैंकों का संचालन उन लोगों के हाथों में नहीं है जिनकी ताकत पर उनका अस्तित्व निर्भर है. इन बैंकों के संचालन पर राजनीतिक हस्तियां हावी हैं. जिस क्षेत्र में जिस किसी राजनीतिक दल का प्रभाव होता है, वही सहकारी बैंकों पर राज करता है. महाराष्ट्र में सहकारी बैंक पहले कांग्रेस, फिर शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और अब कुछ हद तक भाजपा और उसके द्वारा समर्थित स्थानीय संगठनों के नियंत्रण में है. कहने को तो इन बैंकों में बड़े-बड़े अधिकारी हैं लेकिन कर्ज वितरण से लेकर बैंक संचालन से संबंधित नीतिगत निर्णयों में उनकी कोई सुनवाई नहीं रहती.
बैंक के संचालन मंडल में स्थानीय राजनेता ही रहते हैं और सारे अच्छे-बुरे फैसले वे ही करते हैं. राज्य सहकारी बैंकों का तंत्र भी इसी तरह काम करता है. राज्य सहकारी बैंकों को प्रदेश के बड़े नेता संचालित करते हैं. सबसे ज्यादा अनियमितता कर्ज वितरण और बैंकों से जुड़े विभिन्न खर्चों को लेकर होती है. कर्ज वितरण में खुलकर पक्षपात होता है.
इसके लिए पात्रता का विचार तक नहीं किया जाता. अपने-अपने लोगों को जो कर्ज दिया जाता है, वह करोड़ों रुपयों में होता है. छोटे तथा मध्यमवर्गीय किसानों को कर्ज देने में तो कड़े नियमों का हवाला दिया जाता है लेकिन राजनेताओं से भरा सहकारी बैंकों का संचालन मंडल ‘अंधा बांटे रेवड़ी’ की तरह सारे नियमों को ताक पर रखकर अपने पसंदीदा लोगों को उदारता से कर्ज दे देता है.
छोटे किसान तथा ग्रामीण तो अपनी जरूरतें पूरी होने के बाद सहकारी बैंकों को ईमानदारी के साथ कर्ज लौटा देते हैं. लेकिन जिन अपात्र लोगों को करोड़ों रुपए ऋण के रूप में दिये जाते हैं, वे उसे लौटाने की चिंता नहीं करते. इससे बैंकों का एनपीए बढ़ता जाता है. एक तर्क यह दिया जाता है कि कर्जमाफी की राज्य सरकारों की प्रवृत्ति से भी सहकारी बैंकों को कर्ज वसूल करने में कठिनाई होती है और उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है. मगर इसमें सच्चाई नहीं है. केंद्र तथा राज्य सरकारें कृषिकर्ज माफ करती हैं तो माफ की गई रकम सीधे सहकारी बैंकों के खाते में जाती है,
इससे एक तरह से सहकारी बैंकों का कर्ज वसूल हो जाता है तथा उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है. सहकारी बैंकों को एनपीए की बीमारी से मुक्त करने के लिए उनके संचालन संबंधी नियमों में समग्र बदलाव करना पड़ेगा. इन बैंकों को राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह से मुक्त रखने के साथ-साथ कर्ज मंजूर करने वाले संचालक मंडल की जवाबदेही भी तय करनी पड़ेगी. संचालक मंडल के मन में यह भय पैदा होना चाहिए कि कर्ज अगर वसूल नहीं किया गया तो उनसे उसकी भरपाई की जाएगी. व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले विशेषज्ञों के हाथों में इन बैंकों का संचालन होना चाहिए.