Pahalgam Terror Attack: कश्मीर घाटी के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद देश में चिंता के बादल गहराने स्वाभाविक थे. इससे पहले वहां बाहरी राज्यों के मजदूरों को मारने से लेकर सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों की अनेक घटनाएं हुई हैं. जिनमें सामान्य नागरिक के रूप में श्रमिकों ने अपनी जान गंवाई, वहीं सुरक्षा बलों ने आतंकवाद से लोहा लेते हुए देश के लिए अपने प्राण न्योछावर किए. किंतु बीती 22 अप्रैल का हमला उन लोगों पर था, जिनसे घाटी के बड़े तबके की रोजी-रोटी चलती है. उनके आने-जाने से किसी किस्म का राजनीतिक और सामाजिक खतरा पैदा नहीं होता है.
फिर भी आतंक के फितूर ने 28 लोगों को अपना निशाना बनाया, जिसमें छह मराठी लोग सकुशल अपनी घर वापसी नहीं कर सके. पांच लोग घायल भी हुए. इस पूरे घटनाक्रम को अलग मानने और देखने का कारण यह भी है कि पहली बार इतनी बड़ी संख्या में पर्यटक आतंकवाद का शिकार बने तथा आतंक ने धार्मिक आधार पर भी अपने आप को स्थापित करने का प्रयास किया.
बावजूद इसके महाराष्ट्र सहित देश के सभी भागों में संयम के साथ आक्रोश के दृश्य भी देखने मिले. यही नहीं, किसी संप्रदाय विशेष की बजाय धर्मनिरपेक्ष होकर घटना की निंदा और विरोध किया गया. इतिहास गवाह है कि देश में आतंकवाद का सबसे बड़ा भुक्तभोगी महाराष्ट्र ही रहा है. देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में अब तक सर्वाधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई है.
वहीं राज्य के पुणे और नागपुर को भी निशाना बनाने के प्रयास होते रहे हैं. इन तमाम कोशिशों के बावजूद आम जन के बीच कभी आतंकवाद को कोई धार्मिक रंग नहीं मिला. पहलगाम की घटना ने पहली बार पूरे देश में स्पष्ट रूप से धार्मिक आधार पर विभाजन की खाई को बढ़ाने का प्रयास किया. किंतु इस कुत्सित प्रयास को झटका तब लगा.
जब राज्य सहित देश में एक सुर में ‘आतंकवाद का एक ही रंग मानवता से नफरत’ कहा गया. हर धर्म, हर पंथ ने अपने स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया. महाराष्ट्र के अनेक भागों में व्यापारिक प्रतिष्ठान एक दिन के लिए बंद रखे गए. धार्मिक प्रार्थनाओं में हमले की तीखी निंदा की गई. आपसी भाईचारे को बनाए रखने के लिए अपील की गई.
हालांकि सोशल मीडिया ने अपने स्तर पर हर व्यक्ति को प्रभावित करने की कोशिश की, लेकिन जमीनी स्तर पर असर नहीं दिखा. समाज ने कही-सुनी बातों को अधिक महत्व नहीं दिया, बल्कि संवेदशीलता के साथ स्थिति को संभाला. एक अनुमान के अनुसार हमले की अवधि में कश्मीर परिक्षेत्र में एक हजार से अधिक पर्यटक मौजूद थे.
जिनमें से 520 पर्यटकों को राज्य सरकार ने वापस बुला लिया है और शुक्रवार को 232 पर्यटकों के लौटने की संभावना है. राज्य सरकार ने भी समूचे घटनाक्रम में राजनीतिक तत्व का सामना करने से पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी. राज्य के एक मंत्री ही नहीं, बल्कि एक उपमुख्यमंत्री भी श्रीनगर में डेरा जमा कर बैठ गए.
इससे राज्य की घबराई जनता का मनोबल बढ़ा और वह अफरा-तफरी से भी बच निकली. इसी के साथ प्रदेश की अनेक संस्थाएं सामान्य चिकित्सा से लेकर मनोचिकित्सा तक के लिए आगे आईं. राज्य सरकार की आर्थिक सहायता अपनी जगह रही. इन ईमानदार प्रयासों ने आम जन के भटकाव को कोई रास्ता नहीं दिया. किसी भी स्थान पर प्रशासन से लेकर सुरक्षाकर्मियों को मशक्कत नहीं करनी पड़ी.
सरकार या फिर आम जन, जिसने जो किया, वह स्वप्रेरणा के साथ एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में किया. इसी घटनाक्रम के बीच विपक्ष की आवाज अपनी जगह सुनी जा रही है. विशेष रूप से शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट और कांग्रेस के कुछ नेता असामयिक टिप्पणियां करने से बाज नहीं आ रहे हैं.
राज्य सरकार अपना समन्वय किस रूप में स्थापित कर रही है, यह उसकी अपनी चिंता का विषय है. यदि राज्य के नागरिकों को सहायता मिल रही है और वे सकुशल वापसी कर रहे हैं तो यह संतोष का विषय है. गुप्तचर एजेंसियों से चूक हुई या सुरक्षा के इंतजाम कम थे, ये सारी बातें केंद्र सरकार के अधीन हैं. वे सर्वदलीय बैठक में चर्चा में भी आई हैं.
किंतु इन पर सार्वजनिक मंचों से टिप्पणी और सोशल मीडिया अफवाह फैलाना वर्तमान परिदृश्य के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता है. इसी प्रकार कट्टरवादी लोगों को चिह्नित कर उन पर लगाम कसने की बजाय, उनसे जुड़े झूठ को हवा देना घातक कहा जा सकता है. यदि राष्ट्र-समाज संकट स्थिति में संयम का परिचय दे रहा है तो उसे देख राजनीतिक हलकों को परेशान नहीं होना चाहिए.
ताजा आतंकवाद की घटना पिछली सभी घटनाओं से भिन्न है. इसकी जितनी व्यापकता है, उतनी ही संवेदनशीलता भी है. हालांकि करीब चार दशक से आतंकवाद का दंश झेल रहे भारत के हर नागरिक में हिंसा की घटनाओं के बाद उपजी परिस्थिति को लेकर एक परिपक्वता आ गई है, जिसके उदाहरण अनेक घटनाओं के बाद दिखाई देने लगे हैं.
आज धर्म, पंथ, समाज, जाति के नाम पर वैमनस्य पैदा करने के अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को नेस्तनाबूद करने की क्षमता आम जन के पास ही है. वहीं आतंकी सोच की जरूरत समाज में भय का वातावरण पैदा कर आपसी संघर्ष को जन्म देना है. जिसे देश की एकजुटता हमेशा ही परास्त कर देती है. सरकार या राजनीति में प्यादे बदलते रहते हैं, लेकिन आम जन की समझदारी नहीं बदलती है.
नई घटनाओं के दौरान आवश्यकता बस यही है कि उससे प्रभावितों को समय पर सहायता और परिस्थिति से निपटने में ईमानदारी तथा पारदर्शिता को बनाए रखा जाए. तभी आतंकवाद का प्रभाव समाज पर नहीं दिखाई देगा और उसकी सोच रखने वालों के हौसले अपने आप पस्त होते चले जाएंगे.