Maharashtra election 2024: विज्ञान में अक्सर कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है. अब यह वाक्य टूट-फूट के बाद बने महाराष्ट्र के राजनीतिक दलों के लिए आदर्श बन चुका है. कोई कहता था गद्दारी और कोई मानता है परिवार का विघटन, किंतु यह वर्तमान समय में चुनाव का टिकट पाने की आदर्श स्थिति बन चुकी है. पिछले छह माह में कौन-सा नेता किस दल के साथ था और अब किस दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहा है, यह जानना और समझना लगातार मुश्किल हो चला है. आश्चर्य इस बात का है कि बड़े पैमाने पर चल रहे अंतर और बाह्य गठबंधन दल-बदल को लेकर कोई भी पार्टी परेशान नहीं है. कोई इस आवागमन का शोर नहीं मचा रहा है. बस सिर्फ एक सवाल मतदाता के बीच पैदा हो रहे असमंजस का है, जो वोटिंग मशीन पर बटन दबने के बाद ही दूर हो पाएगा.
महाराष्ट्र में पिछले ढाई साल में राजनीतिक दलों की टूट-फूट के बाद पहले लोकसभा चुनाव में परेशानियों की आशंका व्यक्त की गई थी. उसके बाद विधानसभा चुनाव में भी उम्मीदवारों को लेकर हंगामे के आसार थे. स्पष्ट है कि दलों की संख्या बढ़ने से उम्मीदवारों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक था, जिसमें निष्ठा और आवश्यकता, दोनों को देखकर स्थिति अनुरूप निर्णय लिए जाने थे.
मगर विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद दस दिन बीत चुके हैं और नामांकन की अधिसूचना के बाद चार दिन पूरे हो चुके हैं, लेकिन राज्य के सत्ताधारी महागठबंधन ने सीटों के तालमेल पर अपनी ओर से कोई घोषणा नहीं की है. आश्चर्यजनक रूप से शुक्रवार की शाम तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 99, शिवसेना शिंदे गुट ने 45, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) ने 45 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दी थी.
इससे पहले यह समझा जा रहा था कि तालमेल के अनुसार भाजपा 155-160, शिवसेना शिंदे गुट 80-85 और राकांपा(अजित पवार गुट) 55-60 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं. राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस कह चुके हैं कि महागठबंधन में 278 सीटों पर फैसला हो चुका है. केवल दस सीटों पर बातचीत जारी है.
किंतु इस बात को तीनों दल एक साथ बैठकर गठबंधन के रूप में घोषित नहीं कर रहे हैं. अलबत्ता अपनी-अपनी सूची जारी कर उम्मीदवारों की घोषणा करते जा रहे हैं. सूची में मजेदार बात यह है कि सीटों के तालमेल का तो कहीं पता नहीं चल रहा है, मगर उम्मीदवारों की अदला-बदली के तय समीकरण साफ दिखाई दे रहे हैं. संभव है कि यह रणनीति भीतरी असंतोष को अधिक मुखर न बनाने की हो.
ध्यान देने योग्य यह है कि महाराष्ट्र का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं दिखाई दे रहा है कि जहां महागठबंधन के भीतर पार्टी बदल कर उम्मीदवार तय किए जा रहे हों. कोंकण में नीलेश राणे के शिवसेना शिंदे गुट में जाने से आरंभ हुआ सिलसिला जीशान सिद्दीकी और भाजपा के पूर्व सांसद प्रताप चिखलीकर तक पहुंच गया है.
उत्तर महाराष्ट्र में खड़से परिवार में बहू भाजपा सरकार की मंत्री, बेटी राकांपा शरद पवार गुट से चुनाव लड़ने जा रही हैं और पिता लंबे समय से भाजपा में वापसी की राह देख रहे हैं. नांदेड़ के पूर्व सांसद भास्कर खतगांवकर की बहू मीनल खतगांवकर लोकसभा चुनाव के पूर्व छत्रपति संभाजीनगर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से राज्यसभा सांसद अशोक चव्हाण की उपस्थिति में मिली थीं.
किंतु चुनाव की घोषणा होने से पहले भाजपा को छोड़ दिया और कांग्रेस का दामन थामा. यही नहीं, नांदेड़ जिले की नायगांव सीट से टिकट भी पा लिया. पश्चिम महाराष्ट्र में भाजपा नेता निशिकांत भोसले और पूर्व भाजपा सांसद संजयकाका पाटिल ने राकांपा अजित गुट का दामन थाम कर चुनाव का टिकट भी हासिल कर लिया.
राकांपा प्रमुख शरद पवार के कट्टर समर्थक नवाब मलिक ने भी पहले अजित पवार के करीब आकर अपनी स्थिति साफ की, लेकिन भाजपा के विरोध के चलते उनकी बेटी सना मलिक को टिकट देकर अजित पवार ने चाचा और भाजपा दोनों को संदेश दे दिया. नासिक जिले में भी नांदगांव सीट से छगन भुजबल के भतीजे समीर भुजबल ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का रास्ता खोज लिया है.
वह शिवसेना शिंदे गुट के उम्मीदवार घोषित किए जाने से नाराज थे. विदर्भ के बुलढाणा के सिंदखेड़राजा के विधायक राजेंद्र शिंगणे ने ऐन चुनाव के समय राकांपा अजित पवार गुट छोड़ शरद पवार गुट से नाता जोड़ चुनाव की राह तय कर ली है. असल तौर पर चुनाव की घोषणा के पहले और बाद में पाला बदलना तथा सुविधाजनक स्थान पाना हर दल के नेता का अपना प्रयास बना हुआ है.
यूं भी राजनीति की खिचड़ी अत्यधिक जटिल होने के कारण आना-जाना न तो प्रतिष्ठा का मुद्दा रह गया है और न ही इसे किसी के लिए कोई झटका माना जा रहा है. दरअसल महाराष्ट्र की राजनीति अब ऐसे मोड़ पर आ चुकी है कि भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों को छोड़ दिया जाए तो किसी तीसरे दल के पास किसी नेता के स्थायित्व की गारंटी नहीं रह गई है.
अवसरवादिता और राजनीतिक मजबूरी नेताओं को सिद्धांतों से परे ले जा रही है. अब राजनीति का अर्थ केवल चुनाव जीतना और सुरक्षित दलों की शरण में रहना रह गया है. पहले गठबंधन धर्म को भी महत्व मिलता था, लेकिन इस चुनाव में गठबंधन के दलों में आपस में ही जमकर तोड़-फोड़ चल रही है और कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दे रहा है, जिसे आपसी सहमति से आदान-प्रदान माना जा सकता है.
अब विरोधी दल में जाने से पहले गठबंधन के दल ही अवसर देने के लिए तैयार हैं. टूट-फूट के बाद तैयार हुई यह स्थिति राजनीति में अपना किसी भी प्रकार अस्तित्व बनाए रखने वाले नेताओं के लिए अच्छी है, लेकिन भविष्य के लिए कोई आधार नहीं है. इसमें दलीय नैतिकता का कोई स्थान नहीं है.
हालांकि बिखराव में अपनी राजनीतिक संतुष्टि ढूंढ़ने वालों के लिए यह अद्भुत अवसर है. इसके परिणाम तो मतदाता तय करेंगे, जिसके पास इस बार विकल्प आवश्यकता से अधिक होंगे, जो राजनीतिज्ञों की असुविधाजनक स्थिति में सुविधाजनक मार्ग प्रशस्त करेंगे.