जनतंत्र का एक नाम लोकराज भी है. समाजवादी विचारक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे, ‘लोकराज लोकलाज से चलता है’. अर्थात कुछ मर्यादा हैं जनतांत्रिक व्यवस्था की जिनका पालन उन सबको करना चाहिए जो इस व्यवस्था को जीते हैं. इन मर्यादाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान उस भाषा का है जो हमारे राजनेता काम में लेते हैं. संसद से लेकर सड़क तक आज जो भाषा हमारी राजनीति को परिभाषित कर रही है, वह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि हमारे राजनेता या तो ऐसी किसी मर्यादा को जानते नहीं हैं, या फिर उसे मानना नहीं चाहते.
दोनों ही स्थितियां चिंताजनक हैं. मर्यादाओं का जानना जरूरी है और उनका पालन करना भी. दुर्भाग्य से यह दोनों काम नहीं हो रहे.
भाषा का सीधा रिश्ता व्यक्ति की सोच से है. जैसी आपकी सोच होगी, वैसे ही भाषा भी होगी. इसलिए जब हमारा कोई नेता घटिया भाषा बोलता है तो निश्चित रूप से उसकी सोच भी उतनी ही घटिया होती है. चिंता की बात तो यह है कि हमारे नेताओं को अपनी घटिया सोच की कोई चिंता नहीं दिखती. उन्हें यह लगता ही नहीं कि वह कुछ गलत कर रहे हैं. ऐसे में उनसे किसी प्रकार की लोकलाज की अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है?
अपने राजनीतिक विरोधी की आलोचना करना कतई गलत नहीं है, पर आलोचना और गाली-गलौज में अंतर होता है. लगता है इस अंतर को हमारे नेताओं ने भुला दिया है या फिर याद रखना नहीं चाहते. आज घटिया भाषा हमारी राजनीति का ‘नया सामान्य’ बन चुकी है. इन नेताओं में प्रतियोगिता इस बात की चल रही है कि लोकलाज की दृष्टि से कौन कितना घटिया है.
एक बात और भी है. घटिया अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने पर जब उंगली उठती है तो वे ‘मुझे गलत समझा गया’ अथवा ‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं था’ जैसे वाक्यांशों से अपना बचाव करते हैं. जब टी.वी. नहीं था और रिकॉर्डिंग करने की कोई व्यवस्था नहीं थी तो हमारे राजनेता ‘मैंने ऐसा नहीं कहा’ का सहारा लेते थे. अब यह नहीं कहा जा सकता, इसलिए वे कहते हैं, ‘मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था’. इन नेताओं को समझना होगा कि भाषा की मर्यादा का उल्लंघन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता.
अमर्यादित भाषा अराजकता का संकेत देती है. आज हम भाषा की अराजकता के शिकार हो रहे हैं. ऐसा नहीं है कि हमारी राजनीति में यह अराजकता अचानक उभर आई है. पहले भी भाषा की मर्यादा भुलाने के उदाहरण मिलते थे, पर सीमित हुआ करती थी यह प्रवृत्ति. आज जिस गति और मात्रा में यह मर्यादा-हीनता उजागर हो रही है, वह डराने वाली है.
बशीर बद्र का एक ‘शेर’ है- ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे/ फिर कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.’ यहां सवाल फिर से दोस्त बनने का नहीं है. राजनीतिक विरोध का मतलब दुश्मनी नहीं होता. मतभेद स्वाभाविक हैं. राजनीतिक दलों के अस्तित्व का आधार ही भिन्न मतों का होना है. लेकिन इस भिन्नता का अर्थ आपस में गाली-गलौज हो जाए, यह मतलब तो नहीं होता जनतंत्र का. कई बार ऐसा लगता है कि एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले राजनेता क्या सचमुच में एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं? ऐसा नहीं है. ऐसा नहीं होना चाहिए.