लोकसभा चुनाव की घोषणा के पहले राजनेताओं के दलबदल का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह मतदान की तारीखें घोषित होने और उम्मीदवारों के नाम तय होने के साथ तेज हो गया है। लोकसभा चुनाव सात चरणों में होने जा रहे हैं, पहला चरण 19 अप्रैल को होगा।
इस चरण के लिए कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, शिवसेना के उद्धव गुट, बीजू जनता दल, तेलगूदेशम, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, वाईएसआर कांग्रेस समेत तमाम बड़ी पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशी मैदान में उतार चुकी हैं।
टिकट की घोषणा के पहले जिन नेताओं को एहसास हो गया कि उन्हें मौका नहीं मिलने वाला है, उन्होंने पाला बदल लिया और उम्मीदवारों की घोषणा के बाद टिकट से वंचित नेता दूसरे दलों में चले गए। दलबदल करने वाले नेता निराश भी नहीं हो रहे हैं।
वे अपनी पार्टी छोड़कर जिस दल में जा रहे हैं, वहां उन्हें चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है। राजनीति में सत्ता का नशा इतना हावी हो चुका है कि हर बड़ा नेता अपने या अपने पुत्र-पुत्रियों या पत्नी के लिए टिकट चाहता है। जिस पार्टी के नाम से उसने चुनाव लड़ा था, प्रतिद्वंद्वी पार्टी को कोसा था, अब उसी पार्टी का दामन वह थामने लगा है।
राजनीति में रहते हुए उसने वर्षों तक विभिन्न संवैधानिक या पार्टी पदों पर रहते हुए सत्ता भोगी, वह उसके लिए बुरी बन गई क्योंकि उसने इस बार चुनाव में उसे मौका नहीं दिया। पांच-पांच, सात-सात बार विधायक, सांसद रहने के बावजूद पद की लालसा कम होने का नाम नहीं ले रही है।
राजनीति का लक्ष्य निश्चित रूप से सत्ता हासिल करना होता है लेकिन सत्ता का यह रास्ता जनता की सेवा के रास्ते से गुजरता है। राजनीति के मौजूदा दौर में जनसेवा गौण हो गई है। कोई किसी विचारधारा, सिद्धांत या मूल्यों से बंधा हुआ नहीं रह गया है।
हर कोई यही चाहता है कि अगर वह एक बार किसी पद पर पहुंच गया तो जीवनभर उस पर बना रहे। अगर यही नजरिया रहा तो राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन की गति तेज हो जाएगी।
आजादी के बाद देश में नए राजनीतिक दल बने लेकिन उनका जन्म वैचारिक मतभेदों के कारण हुआ। नई पार्टी बनाने वाले दिग्गजों डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, आचार्य नरेंद्र देव, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. राममनोहर लोहिया या चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और उनके बाद की पीढ़ी के जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, मुलायमसिंह यादव, जार्ज फर्नांडीज, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव ने भी अपनी मूल पार्टी को छोड़कर नया दल बनाया लेकिन इन सब नेताओं का जनसेवा का लंबा इतिहास रहा है।
नीतीश तथा लालू जैसे नेता अब सत्ता की खातिर सिद्धांतों को ताक पर रखकर राजनीति करने लगे हैं। यह देखकर अफसोस भी होता है। नई पीढ़ी में कुछ प्रतिभाशाली नेता उभरे। उनसे बड़ी उम्मीदें देश को थीं लेकिन उनका रवैया देखकर आम आदमी मायूस होने लगा है। ये युवा नेता भी अपने निहित स्वार्थों की खातिर पार्टी बदलने में किसी प्रकार का संकोच नहीं कर रहे हैं। दलबदल की यह प्रवृत्ति राजनीति के स्वरूप को विकृत करती जा रही है।
इस विकृति को रोकने के लिए बना दलबदल कानून भी बेअसर साबित हो रहा है क्योंकि उसमें कई खामियां हैं और चतुर राजनेता इन खामियों का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। सत्तर के दशक में ‘आया राम-गया राम’ की राजनीति ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरी क्षति पहुंचाई थी। आज भी वही हो रहा है।