पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी के फैसले सवालों के घेरे में हैं. पहले अपनी ही पार्टी के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के प्रचार से हाथ खींच लेना और फिर विपक्ष की उपराष्ट्रपति पद की प्रत्याशी मार्गरेट अल्वा को समर्थन न देना. राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल के नेता डेरेक ओ ब्रायन से इसी विषय पर लोकमत मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर (बिजनेस एवं पॉलिटिक्स) शरद गुप्ता ने बात की. प्रस्तुत हैं मुख्य अंश...
- क्या उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार को वोट नहीं देना सत्तापक्ष को परोक्ष समर्थन नहीं है?
तृणमूल कांग्रेस ने वैचारिक स्तर पर ही नहीं, जमीन पर भी कभी भी भाजपा से समझौता नहीं किया. हमारा ट्रैक रिकॉर्ड है. इसलिए यह सवाल बेमानी है. वैसे भी एनडीए के उम्मीदवार जगदीप धनखड़ के पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान तृणमूल कांग्रेस सरकार से रिश्ते जगजाहिर हैं. ऐसे में उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष कैसा भी समर्थन देना संभव नहीं है.
- तो फिर मार्गरेट अल्वा ने ऐसा क्या किया कि आप उनको भी समर्थन नहीं दे रहे?
हम मार्गरेट अल्वा जी का बहुत सम्मान करते हैं. ममता दीदी से उनके बहुत सौहार्द्रपूर्ण रिश्ते हैं. लेकिन हमारा विरोध कांग्रेस के राजनीतिक तौर-तरीकों से है. हम संसद के अंदर विपक्ष में दूसरे सबसे बड़े संसदीय दल हैं. लेकिन विपक्षी उम्मीदवार तय करने में हमारी कोई भूमिका ही नहीं समझी गई. हमें तो बस उनकी उम्मीदवारी के बारे में सूचित भर कर दिया गया, इसीलिए यह फैसला लेना पड़ा.
- कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सोनिया गांधी ने स्वयं दो बार ममता बनर्जी से विपक्षी उम्मीदवार को लेकर बात की. शरद पवार ने भी उनसे सलाह-मशविरा किया था. फिर क्या समस्या है?
हमें केवल 15 मिनट के नोटिस पर विपक्षी उम्मीदवार के नाम पर सूचित किया गया. कोई सलाह-मशविरा नहीं होता. इसीलिए हम कांग्रेस के तौर-तरीकों पर विरोध जताना चाहते थे.
- क्या तृणमूल कांग्रेस के लिए अपने सम्मान का विषय विपक्षी एकता से कहीं बड़ा है? आपसी मतभेद तो कभी भी सुलझाए जा सकते थे?
कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व करना चाहती है लेकिन विपक्षी दलों को बराबर का दर्जा नहीं देना चाहती. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, डीएमके, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का हिस्सा हैं. उनके साथ जैसा चाहे व्यवहार करें. लेकिन तृणमूल कांग्रेस यूपीए में नहीं है. इसलिए विपक्ष में हमारा अलग दर्जा है. यही बात हम कांग्रेस को समझाना चाहते हैं.
- ऐसा तो नहीं है कि भाजपा से आपका कोई गुप्त समझौता हो गया हो? जगदीप धनखड़ से विरोध के बावजूद ममता बनर्जी का दार्जिलिंग में उनसे असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा की उपस्थिति में बातचीत का क्या अर्थ है?
क्या किसी पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री के साथ एक कप चाय पीना किसी गुप्त समझौते का संकेत है? जगदीप धनखड़ पश्चिम बंगाल छोड़कर जा रहे थे और दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का ही हिस्सा है. एक विदाई मुलाकात का बहुत अधिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए. तृणमूल कांग्रेस कभी भी और किसी भी मुद्दे पर भाजपा के साथ किसी तरह के समझौते के बारे में सोच भी नहीं सकती.
- क्या इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में सफल नहीं हो पा रही है?
संकेतों से विरोध नहीं होता और न ही केवल बयान जारी करने भर से. कांग्रेस जनता के हितों से जुड़े मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने में नाकामयाब रही है चाहे वह महंगाई का मुद्दा हो, बेरोजगारी का, मीडिया की स्वतंत्रता का या फिर संस्थानों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता खत्म करने का. नेतृत्व का एक ही नियम है, या तो खुद आगे बढ़िए वरना दूसरों के लिए रास्ता खाली कर दीजिए.
- विपक्षी दलों में आपस की लड़ाई सत्तापक्ष के लिए क्या शुभ संकेत नहीं है? क्या आप भाजपा का रास्ता आसान नहीं कर रहे हैं?
बिल्कुल नहीं. मैं फिर कह रहा हूं आप तृणमूल कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड देखिए. संसद के अंदर और संसद के बाहर सड़कों पर भी भाजपा का सबसे कड़ा विरोध तृणमूल कांग्रेस ही कर रही है. हमने न सिर्फ उन्हें चुनाव में बार-बार हराया है बल्कि उनकी खोखली और जनविरोधी नीतियों को भी बेनकाब किया है.
- तो क्या अब किसी भी विषय पर विपक्षी एकता संभव नहीं है?
ममता बनर्जी से अधिक विपक्षी एकता के प्रयास अभी तक किसी ने भी नहीं किए. हम कल भी सभी विपक्षी दलों को एक करना चाहते थे और आज भी हमारा मकसद वही है.