पिछले साल काबुल में तालिबान की सरकार कायम हुई तो मुझे आशा थी कि पिछली तालिबानी सरकार की तुलना में यह सरकार उदार और समझदार होगी. काबुल और दोहा के कई तालिबानी नेताओं से मेरा संपर्क भी हुआ. पुराने तालिबान भी इस बार काफी संयत लगे.
नए तालिबान नेता, जो विदेशों में पले-बढ़े हैं, उनकी पृष्ठभूमि देखते हुए लगता था कि वे अपने बुजुर्गों की गलतियों से कुछ सीखेंगे. इसी आशा में भारत सरकार ने हजारों टन अनाज और दवाइयां काबुल भिजवाईं और अपने दूतावास को भी सक्रिय कर दिया.
कुछ माह तक लगता रहा कि ये नए तालिबान स्त्रियों की समानता और शिक्षा के मामले में प्रगतिशील रुख अपनाएंगे. शुरू में उन्होंने कुछ ढील दी भी लेकिन अब उन्होंने औरतों के लिए बुर्का अनिवार्य कर दिया है. कोई भी औरत अकेली घर के बाहर नहीं निकल सकती. सारे स्कूलों और कालेजों में स्त्री-शिक्षा बंद हो गई है. सरकारी दफ्तरों से महिला कर्मचारियों की छुट्टी कर दी गई है. इनके कारण अफगानिस्तान में आजकल कोहराम मचा हुआ है.
बादशाह जाहिरशाह का 55 साल पहले का वह जमाना मुझे याद है जब काबुल विश्वविद्यालय में मेरे साथ ढेरों लड़कियां पढ़ती थीं, दर्जनों महिला प्रोफेसर सक्रिय थीं और सरकारी दफ्तरों में महिलाएं स्कर्ट और ब्लाउज पहने बेधड़क काम करती थीं.
अब अफगानिस्तान में आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय मदद बहुत कम आ रही है. पाकिस्तान से भी तालिबान के संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं. यदि तालिबानी जुल्म इसी तरह जारी रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें सख्त बगावत का सामना करना पड़ जाए.
ईरानी औरतों ने अपनी सरकार की नाक में दम कर रखा है. यदि वैसी ही बगावत काबुल में शुरू हो गई तो भारत-जैसे राष्ट्रों को भी अपनी अफगान-नीति पर पुनर्विचार करना होगा.