'जामिया मिल्लिया इस्लामिया' दरअसल दो बार बना। एक बार 1920 में जब , महमूद हसन, मोहम्मद अली जौहर, हकीम अजमल खान, एमए अंसारी और ज़ाकिर हुसैन इत्यादि ने इसकी स्थापना की। दूसरी बार 2004-09 में जब मुशीरुल हसन जामिया के वीसी रहे। बमुश्किल पाँच फीट कुछ इंच के एक आदमी ने जामिया को अकेले दम पर 20वीं सदी की दालान से 21वीं सदी की दहलीज पर ला खड़ा किया। इस क़वायद में कई ऊँचे पाजामे वाले उनके दुश्मन हो गये। वो दोबारा जामिया के वीसी नहीं बन सके।
मुशीर साहब के जामिया से जाने के कुछ सालों में ही साबित हो गया कि उनकी भरपाई मुश्किल है। उनके जाने के बाद तालीम के इस इदारे में एक तरह से जंग लग गयी। अपने पाँच साल के कार्यकाल में मुशीर साब ने कई मल्टी-डिसिप्लिनरी सेंटर शुरू किये जिनमें से एक में मैंने भी पढ़ाई की। जामिया में उनसे कुछ छोटी-छोटी मुलाकातें रहीं। कम उम्र और कम अक्ल होने की वजह से कुछेक बार उन्हें अकेले पाकर उनसे कुछ टेढ़े सवाल भी किए। हर बार उन्होंने नरमी से जवाब दिया।
एक बारगी जामिया में होने वाले एक अकादमिक कार्यक्रम के लिए मुझे वीसी ऑफिस से नियमित संपर्क में रहना पड़ता था। एक दिन ग़लती से ग़लत एक्सटेंशन डॉयल कर दिया। दूसरी तरफ से चोंगा उठते ही मैंने बेलौस पूछा, "मुशीर साब के ऑफिस से बोल रहे हैं?" छोटा सा जवाब मिला, "हाँ।" मैंने जोर देकर कहा, "मैं कम्पैरेटिव रिलिजन से ....बोल रहा हूँ, मुशीर साब ने आपसे लेटर लेने को कहा है...।" उधर से बहुत नरम और धीर लहजे में आवाज आयी, "मैं मुशीरुल हसन बोल रहा हूँ, किसी को भेज दीजिए लेटर मिल जाएगा।" मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया।
आखिरी बार उनसे नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में मिलना हुआ। तब तक वो जामिया के वीसी पद से हट चुके थे। उन दिनों मैं वहाँ एमफिल रिसर्च के सिलसिले में नियमित जाया करता था। एकदिन अचानक ही उनपर नज़र पड़ गयी। फिर तो यह रोज़ का दस्तूर हो गया। वो किसी स्कूली छात्र की तरह किताबें निकालकर नोट्स लेते थे। वो रोज़ एक नियमित समय पर आकर एक ही टेबल पर शाम तक रहते थे। आज मुझे वह मंजर किसी कविता जैसा ख़ूबसूरत लगता है, जब आपकी यूनिवर्सिटी का पूर्व वीसी आपके बगल में छात्र की तरह किताबों के पन्ने पलट रहा हो, नोट्स ले रहा हो।
जामिया के शुरुआती दिनों में हम अपने मन में मुशीर साब की छवि मुगल-ए-आजम के जलालुद्दीन अकबर जैसी बनाए रखते थे और ख़ुद को बाग़ी सलीम समझते थे। मुलाकात-दर-मुलाकात उन्होंने हमारा ये फितूर दूर किया। वो अव्वल और आखिर एक टीचर की तरह पेश आते रहे। डेढ़ दर्जन से ज्यादा मोटी-मोटी किताबें लिखने वाले मुशीर साब का प्रिय जुमला था, "एज ए स्टूडेंट ऑफ हिस्ट्री...।" उनसे हमने यही सीखा कि एक सच्चा विद्वान ताउम्र छात्र बना रहता है।
अलविदा मुशीर साब। आपने जो हमें दिया उसके लिए 'एज अ स्टूडेंट ऑफ मुशीरुल हसन' तह-ए-दिल से शुक्रिया।