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ब्लॉग: कश्मीर पर अमित शाह की रणनीति का इंतजार

By अभय कुमार दुबे | Published: January 09, 2024 10:34 AM

कश्मीर के जानकार मानते हैं कि भाजपा सरकार ने एक तिहरी रणनीति बनाई। एक तरफ तो उसने भाजपा की घाटी में उपस्थिति बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर सदस्यता भर्ती अभियान चलाना शुरू किया।

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ठळक मुद्देकेंद्र पहले ही इस स्थिति को भांप चुका थाकेंद्र ने पहले से ही घाटी में नई राजनीतिक शक्तियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया थाशाह फैजल के नेतृत्व में एक पार्टी बनवा दी गई थी

नई दिल्ली: कश्मीर की संवैधानिक हैसियत बदलने के लिए केंद्र सरकार ने अपना ऐतिहासिक हस्तक्षेप उस दौरान किया था जब वहां की पारंपरिक राजनीतिक शक्तियों की साख पूरी तरह से गिर चुकी थी। पीपुल्स डेमाक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ सरकार चलाने से हुए राजनीतिक नुकसान से उबरने में नाकाम थी। लोकसभा चुनाव में महबूबा मुफ्ती समेत उसके सभी उम्मीदवार उस दक्षिण कश्मीर में चुनाव हार गए थे जो कुछ दिन पहले उनका गढ़ हुआ करता था। नेशनल कांफ्रेंस की हालत यह थी कि चुनाव में कुछ सकारात्मक परिणाम मिलने के बावजूद उसकी सांगठनिक हालत खस्ता दिखाई दे रही थी। अब्दुल्ला परिवार के नेतृत्व की चमक पहले जैसी नहीं रह गई थी। फारुक अब्दुल्ला भ्रष्टाचार के मामलों में बुरी तरह से फंसे हुए थे, और उमर अब्दुल्ला ने कोई पंद्रह दिन पहले ही कार्यकर्ताओं के बीच जाना शुरू करके अपनी निष्क्रियता तोड़ी थी। कांग्रेस का संगठन घाटी में पहले ही ठंडा पड़ा था।

दरअसल, केंद्र पहले ही इस स्थिति को भांप चुका था। कश्मीर के जानकार मानते हैं कि भाजपा सरकार ने एक तिहरी रणनीति बनाई। एक तरफ तो उसने भाजपा की घाटी में उपस्थिति बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर सदस्यता भर्ती अभियान चलाना शुरू किया। अगर भाजपा के दावों पर भरोसा किया जाए तो उसने दो महीनों में ही कोई 85000 सदस्य केवल घाटी से ही भर्ती कर लिये थे। हो सकता है कि यह आंकड़ा कुछ बढ़ा-चढ़ा हो, लेकिन फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा मुस्लिम बहुल घाटी में अपने कदम मजबूत करने में लगी हुई थी ताकि केंद्र शासित विधानसभा के चुनाव में कम से कम आठ-दस सीटें जीत सके। भाजपा की गतिविधियों को ध्यान से देखने वाले समझ रहे हैं कि घाटी के कुछ इलाके ऐसे हैं जहां भाजपा की संभावनाएं परवान चढ़ सकती हैं। जैसे बड़गाम जिला है जो शिया बहुल आबादी वाला है। हम जानते हैं कि शिया मुसलमान सत्तर के दशक से ही पहले जनसंघ और अब भाजपा के प्रति हमदर्दी रखते हैं। ध्यान रहे कि अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र के त्राल विधानसभा क्षेत्र (जो सर्वाधिक आतंकवाद-पीड़ित है) में भाजपा को नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले थे। भाजपा तो यह भी मानती है कि अगर घाटी से बाहर रह रहे कश्मीरी पंडितों को वोट डालने के लिए एम फॉर्म भरने के जटिल झंझट से न गुजरना पड़ता तो फारूक अब्दुल्ला तक को चुनाव में हराया जा सकता था।

दूसरी तरफ केंद्र ने पहले से ही घाटी में नई राजनीतिक शक्तियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। आईएएस में आकर नाम कमाने वाले शाह फैजल के नेतृत्व में एक पार्टी बनवा दी गई थी। विधानसभा में भाजपा विधायकों के हाथों जिन इंजीनियर रशीद का मुंह काला किया गया था, उनकी पार्टी भी अपना काम कर रही थी। उन्होंने फैजल की पार्टी के साथ मिल कर गठजोड़ बना लिया था। रशीद स्थानीय अखबारों में पहले से मोदी समर्थक लेख लिख कर घाटी के बारे में कोई असाधारण कदम उठाने की अपीलें कर रहे थे। इस दुतरफा रणनीति का मतलब यह निकलता था कि निकट भविष्य में जब नेतागण रिहा किए जाते तो घाटी में होने वाली राजनीतिक गोलबंदी एकतरफा भारत-विरोधी नहीं होती।

तीसरे, भाजपा विधानसभा के ऊपर से घाटी का प्रभुत्व घटाने की जुगाड़ में थी. विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं जिनमें 46 घाटी के, 37 जम्मू के और 4 लद्दाख के हिस्से की थीं। जाहिर है कि घाटी में जीतने वाला कश्मीर पर हुकूमत करता था। ऐसा लगता है कि इस समीकरण को बदलने के लिए सरकार दो विधियां अपना सकती थी। पहली, परिसीमन आयोग बना कर जम्मू क्षेत्र की सीटों की संख्या कुछ बढ़ाई जा सकती थी (क्योंकि जम्मू की जनसंख्या घाटी से अधिक है)। दूसरी, पाक अधिकृत कश्मीर की नुमाइंदगी करने वाली 24 सीटें फ्रीज पड़ी हुई थीं। इनमें से कुछ सीटें इस चतुराई के साथ डिफ्रीज की जा सकती थीं कि उनका लाभ भी भाजपा को मिले। विश्लेषकों को लग रहा था कि उस समय तक विधानसभा चुनाव टाले जाते रहेंगे जब तक सीटों का यह समीकरण भाजपा के अनुकूल नहीं हो जाता।

अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र के कश्मीर संबंधी फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है इसलिए अब यह सही मौका है कि केंद्र सरकार बिना देर किए कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करे। परिसीमन भी हो चुका है। अमित शाह ने संसद में परिसीमन से बनी नई परिस्थिति भी खोल कर रख दी है। जम्मू के हिस्से में आने वाली 37 सीटें अब बढ़ कर 43 हो चुकी हैं। कश्मीर की 46 सीटों में केवल एक का ही इजाफा हुआ है। पाक कब्जे वाले कश्मीर के लिए 24 सीटें आरक्षित हैं।  अनुसूचित जनजातियों के लिए 9, कश्मीर के विस्थापितों के लिए 2, कब्जे वाले कश्मीर के विस्थापितों के लिए 1 और नामजदगी के लिए 5 सीटों का प्रावधान किया गया है। जाहिर है कि केंद्र ने अपनी शतरंज बिछा दी है. ऊपर से खिलाड़ी केवल एक ही है। उसे ही शह देनी है, और उसे ही मात देनी है। बाकी खिलाड़ी काफी हद तक निष्प्रभावी पड़े हुए हैं। पूरा देश प्रतीक्षा कर रहा है कि केंद्र द्वारा नियुक्त खिलाड़ी के रूप में अमित शाह कब अपनी रणनीति पर अमल करते हैं।

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