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Lord Vishnu: भगवान वराह की पूजा से होती है धन, स्वास्थ्य और सुख की प्राप्ति, जानिए श्रीहरि विष्णु के तीसरे अवतार की पावन कथा

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: April 04, 2024 6:51 AM

भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर तीसरा अवतार वराह रूप में लिया है। वराह अवतार में श्रीहरि आधे सुअर एवं आधे इंसान के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे।

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ठळक मुद्देभगवान विष्णु ने पृथ्वी पर तीसरा अवतार वराह रूप में लिया हैवराह अवतार में श्रीहरि आधे सुअर एवं आधे इंसान के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थेमान्यता है कि जो भक्त श्रीहरि के वराह अवतार की पूजा करते हैं उन्हें धन, यश और सुख की प्राप्ति होती है

Lord Vishnu: भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर तीसरा अवतार वराह रूप में लिया है। श्रीमद्भगवतगीता में भगवान कृष्ण कहते हैं 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम'। इसका अर्थ है कि पृथ्वी पर जब-जब धर्म की हानि होती है या अधर्म का बोलबाला होता है तब भगवान स्वयं जन्म लेते हैं। वैसे पृथ्वी पर कृष्ण के रूप में दामोदर का अवतार आठवां है, लेकिन उनके द्वारा कही गई यह बात भगवान विष्णु के हर अवतार के लिए सिद्ध होती है।

भगवान विष्णु वराह अवतार में आधे सुअर एवं आधे इंसान के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। वराह भगवान की आराधना और पूजन भक्तों के लिए कल्याणकारी मानी जाती है। मान्यता है कि हिंदू धर्म विधानों के अनुसार जो भक्त श्रीहरि के वराह अवतार की पूजा करते हैं उन्हें धन, स्वास्थ्य और सुख की प्राप्ति होती है। इस अवतार ने बुराई पर विजय प्राप्त की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था। इस कारण से वराह की पूजा भक्त के जीवन से सारी बुराइयों को समाप्त करती है।

क्या है वराह अवतार की कथा

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु कश्यप मुनि और दिति के दो जुड़वा असुर पुत्र थे। उन्होनें माता दिति के 100 वर्ष तक गर्भ धारण के पश्चात जन्म लिया था। ये दोनों ही लोभ के अवतार हैं। उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अंतरिक्ष में अनेकों उत्पात होने लगे, जिनसे लोग अत्यंत भयभीत होने लगे।

जहां- तहां पृथ्वी और पर्वत कांपने लगे, जगह-जगह उल्कापात होने लगा व बिजलियां गिरने लगीं। घटाओं ने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के लुप्त हो जाने से आकाश में गहरा अंधेरा छा गया। समुद्र दुखी मनुष्य की भाँति कोलाहल करने लगा। उसमें ऊंची-ऊंची तरंगे उठने लगीं व भीतर रहने वाले जीवों में बड़ी हलचल मच गई। गावों में गीदड़, उल्लुओं, कुत्तों व सियारों के भयावह अमंगल शब्द सुनाई देने लगे। पक्षी डर कर रोते चिल्लाते अपने घोंसलों से उड़ने लगे व पशु भयभीत हो कर मल-मूत्र त्यागने लगे।

गौएँं इतनी डर गईं कि दुहने से उनके थनों से खून निकलने लगा, बादलों से रक्त की वर्षा करने लगे, देवमूर्तियों की आँखो से आंसू बहने लगे और बिना आंधी के ही वृक्ष उखड़ उखड़ कर गिरने लगे। सभी ग्रह प्रबल हो कर एक दूसरे से युद्ध करने लगे। सभी जीवों ने समझा कि अब संसार की प्रलय होने वाली है।

वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनंतर शीघ्र ही बढ़कर पर्वतों के समान विशाल व फौलादी शरीर वाले हो गए। वे इतने ऊंचे थे कि उनके स्वर्णमय मुकुट स्वर्ग को स्पर्श करते व उनके विशाल शरीर से सारी दिशाएं आच्छादित हो जातीं।

ब्रह्मा जी से मिले वरदान से दोनों दैत्यराज भाई मृत्यु से मुक्त हो जाने के कारण बड़े ही निरंकुश व उन्मुक्त हो गये थे। हिरण्याक्ष के तेज के आगे सभी देवता छिप जाते और वह सभी से युद्ध के अवसर खोजता रहता। एक बार वह जलक्रीड़ा करने के लिए मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्र में घुस गया, वर्षों तक वही घूमता रहा व पाताल लोक में जा कर वरुण देवता को युद्ध के लिए ललकारने लगा। भगवान वरुण को क्रोध तो बहुत आया परन्तु अपने बुद्धिबल से उन्होनें उसे समझाया कि भगवान पुराण पुरुष के सिवाय उसे कोई युद्ध में संतुष्ट नहीं कर पायेगा। क्रोधित होकर दैत्य श्रीहरि का पता लगाने लगा।

लोभ को मारना अति कठिन है। यह तो वृद्धावस्था में भी पीछा नहीं छोड़ता। सत्कर्म में भी लोभ ही विघ्नकर्ता है और लोभ मरता है संतोष से, इसलिए संतोष की आदत डालनी चाहिए। लोभ आदि के प्रसार से दुख के गहरे समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के उद्देश्य से ही भगवान ने वराह अवतार लिया था।

उपनिषद् में कहा है कि प्रत्येक जीव में प्रभु ने प्रवेश किया है अतः सारा जगत् परमात्मा का मंगलमय स्वरुप है।भगवान की नाभि से कमल उत्पन्‍न हुआ जिसमें से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया, काम को जन्म दिया। काम ने प्रथम पिता को मोहित किया। प्रथम हुए स्वायंभुव मनु और शतरूपा रानी। तभी से प्रजा की वृद्धि होने लगी। उन्होने आदरपूर्वक ब्रह्माजी को प्रणाम करके अपने योग्य आज्ञा पूछी। ब्रह्माजी ने उन्हें उन्हीं के समान गुणवती संतान उत्पन्‍न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करने व यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करने की आज्ञा दी।

मनु ने करबद्ध हो कर अपने व अपनी भावी प्रजा के रहने हेतु स्थान पूछा। पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि इसे कैसे निकालूँ? प्रजा के रहने योग्य पृथ्वी देवी तो जलमग्न हैं तो अब तो, जिनके संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है। वे सर्वशक्तिमान श्रीहरि ही मेरा यह कार्य पूरा करें।

ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनकी नासाछिद्र से अकस्मात अंगूठे के बराबर आकार का एक वराह शिशु निकला। आश्चर्य की बात तो यह हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वराह शिशु ब्रह्माजी के देखते ही देखते बड़ा होकर क्षणभर में हाथी के बराबर विशाल हो गया।

यह देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वयांभुव मनु के सहित श्री ब्रह्माजी तरह-तरह के विचार करने लगे- अहो ! आज यह कैसा दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है। अवश्य ही यज्ञ मूर्ति भगवान हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। तभी भगवान यज्ञ पुरुष पर्वताकार हो कर गरजने लगे।

सर्वशक्तिमान श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराह भगवान की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेंदो के परम पवित्र मंत्रो से उनकी स्तुति करने लगे। उस स्तुति को वेद रूप मान श्री भगवान बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर उन्होंने गरजकर देवताओं के हित के लिए गजराज की सी लीला करते हुए जल में प्रवेश किया।

पहले वे सूकररूप भगवान पूंछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गरदन के बालों को फटकार कर, खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े कड़े बाल थे, दाढें सफ़ेद थी और नेत्रों से तेज निकल रहा था।

ऐसे तेजोमय शोभायमान भगवान, स्वयं यज्ञ पुरुष होते हुए तथापि सूकररूप धारण करने के कारण अपने नाक से सूँघ सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। स्वभाव से भक्तवत्सल, करुणा वरुणालय परन्तु इस अवतार रूप में दिखने में क्रूर प्रभु ने अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमे बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ. मानो समुद्र उनसे रक्षा की करुण पुकार कर रहा हो।

तब भगवान यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के दूसरे पार पंहुचे। वहां रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिए उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था। फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ो पर ले कर रसातल से ऊपर लाने को उद्यत हुए।

शोभायमान प्रभु के जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिए महापराक्रमी दैत्य हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण कर दिया व अपशब्द कहने लगा। श्री भगवान ने भी रोष से उस दैत्य का खूब तिरस्कार व उपहास किया।

उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और क्रोध से तिलमिलाए दोनों में बहुत देर तक भयंकर युद्ध हुआ। फिर देवताओं की प्रार्थना पर श्री भगवान ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा और हिरण्याक्ष की कनपटी पर ज़ोर का तमाचा मारा। चोट से उसका शरीर घूमने लगा, नेत्र बाहर निकल आये, हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गए और वह निष्प्राण हो कर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।

भगवान श्रीहरि उस समय हिरण्याक्ष के रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण प्रभु ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मार कर आया हो। जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतो की नोक पर पृथ्वी को धारण करके, जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।

प्रेम व करुणा भरी उस स्तुति को सुनकर, सबकी रक्षा करने वाले वराह भगवान ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया तथा उसमें अपनी आधार शक्ति का संचार भी किया। इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।

समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को वराह भगवान ने बाहर तो निकाला किन्तु उसे अपने पास न रखा। पृथ्वी उन्होंने मनु को अर्थात मनुष्य को सौंप दी। जो कुछ अपने हाथों में आया उसे औरों को दे दिया यही संतोष है। मनु से उन्होनें कहा कि धर्म से पृथ्वी का पालन करना और वे बद्रीनारायण के रूप में लीन हो गए।

मनुष्य मात्र का धर्म है समाज को सुखी करना। यह आदर्श वराह भगवान ने अपने ही आचरण द्वारा मनुष्यों को सिखाया। लोभ को मारने के लिए वराह नारायण के चरणों का आश्रय लेना चाहिए। वराह भगवान के चरण संतोष का स्वरुप हैं। जब तक मन से लोभ रूपी हिरण्याक्ष नहीं मिटेगा तब तक पापवृत्ति व अशांति बनी ही रहेगी।

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