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राजकमल प्रकाशन दिवस पर विचार पर्व ‘भविष्य के स्वर’ का आयोजन, 77वाँ सहयात्रा उत्सव

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 29, 2024 7:13 PM

राजकमल प्रकाशन दिवस पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सहयात्रा उत्सव मनाया गया। इस मौके पर विचार पर्व ‘भविष्य के स्वर’ का चौथा अध्याय प्रस्तुत किया गया।

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ठळक मुद्देचार वक्ताओं ने निर्धारित विषयों पर भविष्य की दिशा तय करने वाले खास वक्तव्य दिए।हम सबका इतिहास पर अधिकार है क्योंकि इतिहास हमारी खुद की कहानी है।जब प्रेमचंद लिखा करते थे तब भी समस्याएँ छोटी तो नहीं थी।

नई दिल्लीः हर चीज में इतिहास होता है लेकिन हर चीज इतिहास नहीं होती। इतिहास को पठनीय बनाने के लिए हमें उसे आमजन की भाषा में ही बताना होगा। अतीत और वर्तमान को समझने और भविष्य को देखने की नई खिड़की खोलने वाले कई सारे प्रश्न हमारे सामने हैं, उत्तर हमें और हमारी नई पीढ़ी को ढूंढने हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपनी जगह बनाने के लिए आदिवासी कविता ने सबसे लंबी लड़ाई लड़ी है। आदिवासी समाज के गीतों में आसपास की पारिस्थितिकी में जो कुछ भी घट रहा है वह सब शामिल होता है। उनके गीतों में जीवन का राग है। उनके गीतों में प्रेम है तो विद्रोह भी है। यह बातें राजकमल प्रकाशन के 77वें स्थापना दिवस पर आयोजित विचार पर्व ‘भविष्य के स्वर’ के वक्ताओं ने कही। 

राजकमल प्रकाशन दिवस पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सहयात्रा उत्सव मनाया गया। इस मौके पर विचार पर्व ‘भविष्य के स्वर’ का चौथा अध्याय प्रस्तुत किया गया। जिसमें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आने वाले चार वक्ताओं ने निर्धारित विषयों पर भविष्य की दिशा तय करने वाले खास वक्तव्य दिए। इसमें शामिल वक्ता थे―  इतिहास अध्येता ईशान शर्मा; कहानीकार कैफ़ी हाशमी; कवि विहाग वैभव; आदिवासी लोक साहित्य अध्येता-कवि पार्वती तिर्की।

व्हाट्सएप पर जो मिल जाता है, वह इतिहास नहीं : ईशान शर्मा

विचार पर्व के पहले वक्ता इतिहास अध्येता ईशान शर्मा ने कहा कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ बहुमत द्वारा स्वीकार किए गए तथ्यों को ही इतिहास मान लिया जाता है। बहुत-सी ऐसी कहानियाँ है जो हमें कहीं भी लिखित रूप में नहीं मिलती लेकिन लंबे समय तक सुनते रहने से वह इतिहास का दर्जा पा चुकी है। हम सबका इतिहास पर अधिकार है क्योंकि इतिहास हमारी खुद की कहानी है।

सही इतिहास क्या है और उसे हमें कैसे पढ़ना चाहिए इस पर बात करते हुए ईशान ने कहा, “इतिहास को लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हीं की भाषा में उसका उपलब्ध होना जरूरी है। हमें अंग्रेजी में तो आसानी से उचित साहित्य मिल जाता है लेकिन आज भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में इतिहास की किताबों की कमी है।

शायद यही कारण है कि इतिहास को हमेशा उबाऊ समझा गया क्योंकि हमें यह पढ़ाया ही गलत तरीके से गया है। हमें इतिहास को पढ़ने का तरीका बदलना होगा। आपको यह समझना बहुत जरूरी है कि हमें व्हाट्सएप पर जो मिल जाता है वह इतिहास नहीं है। सही इतिहास जानने के लिए आपको पढ़ना पड़ेगा।”

रचनाओं में पाठक को चुनौती नहीं देते लेखक : कैफ़ी हाशमी

अगले वक्ता कैफ़ी हाशमी ने कहा, “जब प्रेमचंद लिखा करते थे तब भी समस्याएँ छोटी तो नहीं थी। समस्याएँ हर दौर की बड़ी ही होती है लेकिन उस समय समस्याओं के सापेक्ष समाज सरल था। यह सरलता इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सालों तक बनी रही। अब हम डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन के दौर में है जहाँ आर्टिफिशिअल इंटेलिजेंस और ओवरफ्लो ऑफ़ इनफार्मेशन जैसी चीजें हमारे सामने हैं।

ऐसे में यह लेखकों के ऊपर है कि वह समय की इन महीन परतों के बीच कथा के लिए कैसे विषय चुन सकते हैं।” आगे उन्होंने कहा, “एक तरफ समाज शिक्षित हुआ है, जागरूक हुआ है पहले से ज्यादा लोगों के हाथों में किताबें आई हैं। लेकिन दूसरी तरफ लेखक पर दबाव यह है कि हमें कथा और कहानी को आसान बनाना है।

इस बात का नकारात्मक प्रभाव उन लेखकों पर पड़ता है जो अच्छे विषय चुन सकते थे लेकिन बाज़ार, पठनीयता, प्रकाशक और आलोचकों के फैलाए हुए शूडो नैरेटिव में हल्के विषयों की तरफ मुड़ जाते हैं। वहीं कई बार यह भी होता है कि लेखक अपने पाठक की समझ को कमतर आँकते हैं। वह अपनी रचना में पाठकों को चुनौती नहीं देते। हिन्दी में बहुत कम रचनाएँ ऐसी है जो पाठकों को चुनौती देती है।” 

कैफ़ी हाशमी का वक्तव्य ‘कथा में विषय का चुनाव’ विषय पर केन्द्रित था। इस दौरान उन्होंने कहा कि कई बार लेखक को यह लगता है कि कहानी के लिए विषय का चुनाव वह खुद करता है लेकिन ऐसा नहीं होता। लेखक कहानी के लिए जब किसी विषय का चुनाव करता है तो उसके पीछे अवचेतन में बहुत से दबाव काम कर रहे होते हैं। 

दलित विमर्श समकालीन साहित्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि : विहाग वैभव

इसके बाद कवि विहाग वैभव ने ‘इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता’ विषय पर अपना वक्तव्य दिया। इस दौरान उन्होंने कहा, “इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता मूलत: बहुवचन संज्ञा है। हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कविता में इतनी भिन्न-भिन्न सामाजिक समूह की अभिव्यक्तियों प्रकाशित हुईं।

दलित आंदोलन, स्त्री आंदोलन और आदिवासी विमर्श ने समकालीन कविता ही नहीं बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य को बदलकर रख दिया है। दलित विमर्श समकालीन साहित्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।” आगे उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए सबसे लंबा सफर आदिवासी कविता ने तय किया है और इसी ने सबसे लंबी लड़ाई लड़ी है।

उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया के आने से सबको अपने आप को अभिव्यक्त करने का एक लोकतांत्रिक मंच मिला है लेकिन यह हिन्दी कविता को जो कुछ दे सकता था, वह दे चुका है। वर्तमान में कवियों की सोशल मीडिया के जरिए जल्दी लोकप्रिय होने की मंशा हिन्दी कविता के लिए हानिकारक होगी।

आदिवासी समाज के लिए चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत : पार्वती तिर्की

‘भविष्य के स्वर’ कार्यक्रम की अंतिम वक्ता पार्वती तिर्की ने अपने वक्तव्य में कहा कि आदिवासी समाज के गीतों में आसपास की पारिस्थितिकी में जो कुछ भी घट रहा है वह सब शामिल होता है। उनके गीतों में जीवन का राग है। उनके गीतों में प्रेम है तो विद्रोह भी है। आदिवासी समाज के लिए हर मौसम उत्सव की तरह होता है और जीवन की हर गतिविधि के लिए उनके पास अपने गीत है।

यह इतने सहज है कि उनके लिए चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है। आदिवासी गीतों की व्यवस्था और शैली दो सबसे अहम चीज़े हैं। आज को समझने के लिए कल के गाए गीतों का पुनर्पाठ इसीलिए जरूरी हो जाता है। वाचिक से लिखित की परम्परा तक के संघर्ष से यह भी मालूम कर सकते हैं कि आधुनिक मनुष्य द्वारा बनायी व्यवस्था आदिवासी वाचिक साहित्य व्यवस्था से कैसे भिन्न है, वह अपनी भिन्नता में कौन सा अर्थ लेती है, वह सकारात्मक है या नकारात्मक? उनका वक्तव्य ‘लोकगीतों के नए पाठ कैसे हों?’ विषय पर केन्द्रित था।

उन्होंने उन्होंने कहा कि वर्तमान व्यवस्था में जंगल और आदिवासी के लिए बहुत खतरे हैं। वर्तमान में लोकगीतों की लोकप्रियता कम हो रही है। गीतों को न गाया इस सदी का सच है जो कि इस व्यवस्था की उपज है। उनके गीतों को दोहराया जाना ही व्यवस्था से सवाल करना है। इसलिए इन गीतों के पुनर्पाठ की बहुत जरूरत है। अपने वक्तव्य के बीच-बीच में उन्होंने कई कुडुक आदिवासी समाज के कई लोकगीत गाकर सुनाए। जिन्हें श्रोता तल्लीनता से सुनते रहे। 

युवा प्रतिभाओं को सामने लाने का एक विनम्र प्रयास है ‘भविष्य के स्वर’ : अशोक महेश्वरी

इससे पहले, कार्यक्रम के आरंभ में अपने स्वागत वक्तव्य में राजकमल प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, “भविष्य के स्वर युवा प्रतिभाओं को सामने लाने का हमारा एक विनम्र प्रयास है। आज चौथा विचार पर्व है। अब तक इसमें चिन्हित युवा 40 वर्ष तक की आयु के रहे हैं। यह पहली बार हुआ है कि हमने अधिकतम आयु सीमा 30 वर्ष रखी है।”

उन्होंने कहा कि आज राजकमल प्रकाशन 77वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। वर्षों का पड़ाव पार अपनी इस लम्बी यात्रा में अनेक पड़ावों से गुजरा है। राजकमल का इतिहास गौरवपूर्ण उसके लेखकों से है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमने सभी प्रमुख लेखकों की प्राय: सभी पुस्तकों का प्रकाशन किया है।

मुझे यह बताते हुए खुशी है कि इस परंपरा में चार महत्वपूर्ण नाम और जुड़े हैं―  चन्द्रकिशोर जायसवाल, निर्मल वर्मा, गगन गिल और संजीव। उन्होंने बताया कि हमने एक प्रकाशन समूह के रूप में इस वर्ष 217 नई पुस्तकें प्रकाशित कीं और 781 पुस्तकों के नए संस्करण प्रकाशित किए हैं।

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