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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जातिगत जनगणना से कितना फायदा?

By अभय कुमार दुबे | Published: January 25, 2023 8:51 AM

राष्ट्रीय जनगणना केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बारे में ऐसे आंकड़े बताती है. बिहार की गणना सभी जातियों के बारे में तस्वीर साफ कर देगी.

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ठळक मुद्देइस लिहाज से देखा जाए तो यह कवायद कुल मिला कर आबादी के आर्थिक-सामाजिक हालात की जातिवार तस्वीर पेश कर देगी.इस अगड़ी-पिछड़ी गोलबंदी ने प्रभुत्वशाली पिछड़ी जातियों और मुसलमान वोटरों की एकता को पराजित कर दिया है.

राष्ट्रीय स्तर पर 2021 में जनगणना होनी थी. इसे न कराने की सफाई देते हुए सरकार संसद में बता चुकी है कि कोविड की वजह से उसने यह कवायद अगले निर्णय तक स्थगित कर रखी है. अगला निर्णय कब होगा, पता नहीं. जनगणना न कराने के नुकसान अपने-आप में स्पष्ट हैं. मसलन, 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में 81.5 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत रियायती या मुफ्त अनाज पाने का हकदार माना जाता है. 

इस कानून के मुताबिक देहाती आबादी के 75 फीसदी और शहरी आबादी के पचास फीसदी लोगों को यह लाभ मिलना चाहिए. अगर इन्हीं आंकड़ों को 2021 पर प्रोजेक्ट किया जाए तो ऐसी आबादी 92 करोड़ तक पहुंच जाती है.  यानी, जनगणना के अभाव में देश के तकरीबन दस करोड़ गरीब लोग रियायती अनाज से वंचित हैं. दरअसल, जनगणना की कवायद शुरू करने में सरकार की हिचक को समझना मुश्किल है. इससे तो सरकार और सत्तारूढ़ दल को फायदा ही होने वाला है. 

अगर यह सरकारी दावा सही है कि पहले के मुकाबले कहीं अधिक परिवारों को बिजली, स्वास्थ्य, मकान और खाना पकाने की गैस जैसी सुविधाएं मिल रही हैं तो यह आंकड़ों में निकल कर आ जाएगा. इसके जरिये अगले चुनाव में सरकार को एंटी-इनकम्बेेंसी का मुकाबला करने में मदद मिलेगी. भारत सरकार भले ही दशवार्षिकी जनगणना न करा रही हो, लेकिन नीतीश कुमार की सरकार ने लोगों की जातिवार गिनती शुरू कर दी है. जहां तक जातिगत जनगणना का सवाल है, कुछ दूसरे प्रदेश और कुछ दूसरी सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियों की तरफ से भी ऐसा करने के इरादे की घोषणा की जा चुकी है. 

हो सकता है कि वहां भी जल्दी ही जातियों की गणना प्रारंभ हो जाए. इस कवायद का यह केवल एक तकनीकी पहलू है कि बिहार द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया को जनगणना कहा जाए या जातियों का सर्वेक्षण. कानूनन जनगणना करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के पास है. इसलिए अगर कोई राज्य इस तरह की कोई गणना करवाता है तो उसे औपचारिक रूप से इसे सर्वेक्षण कहना होगा. लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें और केंद्र द्वारा करवाई जाने वाली जनगणना के बीच कोई खास अंतर नहीं है. 

इसमें भी तकरीबन वे सभी सवाल पूछे जाने हैं जो राष्ट्रीय जनगणना के दौरान पूछे जाते हैं. फर्क केवल इतना होगा कि गिनती करने के बाद यह प्रक्रिया बता देगी कि किस जाति के पास कितनी शिक्षा है, कितनी नौकरियां हैं, किसकी आमदनी कितनी है, कितने परिवारों के पास अपने घर हैं, बिजली है, खाना पकाने की गैस है आदि-आदि. 

राष्ट्रीय जनगणना केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बारे में ऐसे आंकड़े बताती है. बिहार की गणना सभी जातियों के बारे में तस्वीर साफ कर देगी. इस लिहाज से देखा जाए तो यह कवायद कुल मिला कर आबादी के आर्थिक-सामाजिक हालात की जातिवार तस्वीर पेश कर देगी. चूंकि संविधान जाति को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन के आधार की तरह मान्यता देता है, इसलिए भी ऐसी जातिगत गणना श्रेयस्कर कही जा सकती है.

लेकिन क्या जातिगत गिनती के पीछे का मकसद केवल यही है? अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं, पार्टियों और बुद्धिजीवियों का घोषित-अघोषित विचार है कि जैसे ही जातियों की संख्या की प्रामाणिक जानकारी मिलेगी, वैसे ही राजनीति का खेल बदल जाएगा. उन्हें पिछड़ी जातियों की एकता और गोलबंदी का एक ऐसा प्रबल तर्क मिल जाएगा जिससे वे सत्ता के लिए की जाने वाली होड़ को गहराई से प्रभावित कर सकेंगे. लेकिन मेरा विचार है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की रोशनी में इस कोशिश के भी इच्छित राजनीतिक परिणाम नहीं निकलेंगे. 

पिछड़ी जातियों की अलग से गोलबंदी करके एक स्थायी जातिगत बहुमत बनाने की रणनीतिक योजना में हिंदुत्ववादी राजनीति की सफलता ने पलीता लगा दिया है. हिंदुत्ववादी शक्तियां अगड़ी जातियों सहित पिछड़ों के एक हिस्से के साथ राजनीतिक समीकरण बना चुकी हैं. इसने 45 से 50 फीसदी की हिंदुत्ववादी राजनीतिक एकता तैयार कर ली है. इस अगड़ी-पिछड़ी गोलबंदी ने प्रभुत्वशाली पिछड़ी जातियों और मुसलमान वोटरों की एकता को पराजित कर दिया है. 

धीरे-धीरे करके राष्ट्रवाद, हिंदू गौरव और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे जज्बाती विचारों ने अब प्रभुत्वशाली पिछड़े समुदायों के कुछ हिस्सों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है. अब अगर पिछड़ों की असली संख्या का प्रामाणिक आंकड़ा आ भी जाए तो भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ की जाने वाली फिकरेबाजी पहले की तरह असरदार होने की संभावनाएं नहीं हैं. पिछड़े समुदायों को ब्राह्मण-बनिया पार्टी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी में सत्ता का सुख प्राप्त हो रहा है. 27 प्रतिशत आरक्षण के अधिक समान बंटवारे के लिए रोहिणी कमीशन जैसे उपाय किए जा रहे हैं. 

यह प्रक्रिया भी धीमी है और झटके खा-खा कर आगे बढ़ रही है. फिर भी सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली पुरानी राजनीति की संभावनाओं को इसने कमजोर कर दिया है. कहना न होगा कि बिहार की जातिगत गणना से समतामूलक नीति-निर्माण की दिशा में कुछ न कुछ प्रगति ही होगी. लेकिन इससे राजनीति की चलती हुई धारा में कोई परिवर्तनकारी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकेगा.

टॅग्स :जातिभारत
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