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Rashtriya Swayamsevak Sangh rss: वंचित वर्ग से जुड़ने की पहल करता संघ

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 11, 2024 05:37 IST

Rashtriya Swayamsevak Sangh rss: संघ और संबंधित संगठनों के वरिष्ठ नेताओं के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी शामिल थे, के बाद इस राय को सार्वजनिक किया.

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ठळक मुद्देRashtriya Swayamsevak Sangh rss: सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और जातिगत भेदभाव के लिए उस पर निशाना साध रहा है.Rashtriya Swayamsevak Sangh rss: सबसे बड़ा उदाहरण जाति से संबंधित विषयों पर संघ के शीर्ष नेतृत्व के बदलते बयान हैं.Rashtriya Swayamsevak Sangh rss: सुनील आंबेकर ने कहा- हमारे हिंदू समाज में जाति और जाति संबंधों का संवेदनशील मुद्दा है.

प्रभु चावलाः

इस वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं. इसी के साथ संगठन राजनीतिक वास्तविकताओं से सामंजस्य बैठाना तथा नये भारत की मांगों को सुनना सीख रहा है, जिसे बनाने में उसका भी योगदान रहा है. वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आख्यानों के दबाव में संघ अपनी पहचान एवं विचारधारा में बदलाव करना भी सीख रहा है. सौ वर्षों में वह धर्मनिरपेक्षता के आग्रह को हाशिये पर धकेलने में सफल रहा है. पर पहले कभी ऐसे विपक्ष का सामना उसने नहीं किया था, जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और जातिगत भेदभाव के लिए उस पर निशाना साध रहा है.

अतीत में संघ ऐसे आरोपों की अनदेखी करता रहा था. पर अब उसने हिंदू एकता की एक शक्ति के रूप में अपनी विश्वसनीयता, स्वीकार्यता और प्रभाव को बचाने के लिए अपने वैचारिक विरोधियों का सामना करने का निर्णय लिया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण जाति से संबंधित विषयों पर संघ के शीर्ष नेतृत्व के बदलते बयान हैं.

कुछ दिन पहले नेतृत्व ने यह स्पष्ट कर दिया कि संघ जाति सर्वेक्षण व सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विरुद्ध नहीं है. केरल में आयोजित 300 से अधिक वरिष्ठ पदाधिकारियों की बैठक के बाद इसके प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा- ‘हमारे हिंदू समाज में जाति और जाति संबंधों का संवेदनशील मुद्दा है. निश्चित रूप से यह हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.

इसे चुनावी या राजनीतिक आधार के बजाय बेहद गंभीरता से समझा जाना चाहिए.’ उन्होंने यह भी कहा कि संघ का विचार है कि सभी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सरकार को संख्या की आवश्यकता होती है, जो कि एक स्थापित व्यवस्था है, पर इसका उपयोग केवल वंचित समुदायों एवं जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए, न कि चुनाव में एक राजनीतिक हथियार की तरह.

आंबेकर ने लंबी चर्चा, जिसमें संघ और संबंधित संगठनों के वरिष्ठ नेताओं के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी शामिल थे, के बाद इस राय को सार्वजनिक किया. भाजपा ने अभी तक राष्ट्रव्यापी जाति सर्वेक्षण का समर्थन नहीं किया है, जबकि उसके सहयोगी दल जद(यू) द्वारा बिहार में एक जाति गणना कराई जा चुकी है.

संघ परिवार के योद्धा इस बदलाव के समय को लेकर अचंभित हैं. संघ हिंदू एकता को लेकर अडिग रहा है. उसके कई वरिष्ठ नेताओं ने जाति-आधारित आरक्षण के विरुद्ध बोला भी है. आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2015 में आरक्षण के राजनीतिकरण की आलोचना करते हुए आरक्षण नीति की समीक्षा का आह्वान किया था.

जनवरी 2017 में संघ के एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी मनमोहन वैद्य ने कहा कि ‘अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था एक भिन्न संदर्भ में की गई थी. संविधान में इसकी व्यवस्था उनके साथ ऐतिहासिक रूप से हुए अन्याय के उपचार के तौर पर की गई थी. यह हमारा उत्तरदायित्व था. इसलिए संविधान में प्रारंभ से ही उनके लिए आरक्षण का प्रावधान है.

डॉ. आंबेडकर ने भी कहा था कि इसे हमेशा बहाल रखना उचित नहीं होगा. इसकी कोई समय सीमा होनी चाहिए.’ लेकिन कुछ दिन बाद ही संघ ने मीडिया के विश्लेषण का खंडन कर दिया. एक संयुक्त बयान में दत्तात्रेय होसबोले और वैद्य ने कहा कि संविधान के अनुसार जाति आधारित आरक्षण जारी रहना चाहिए और यह तब तक जारी रहना चाहिए, जब तक हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव है.

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भागवत ने संघ की सोच को और स्पष्ट करते हुए कहा कि संघ ने संविधान द्वारा दिए गए आरक्षण का हमेशा समर्थन किया है और इसे तब तक बहाल रखा जाना चाहिए, जब तक इसकी आवश्यकता है. यह स्पष्ट है कि संघ की विपक्षी दलों तथा चुनावी राजनीति के समीकरणों पर नजर है.

संघ पर पहले जो हमले होते थे, वे धीमे होते थे और कुछ व्यक्तियों तक सीमित होते थे. अब ऐसी स्थिति नहीं है. विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने संघ को अपना मुख्य निशाना बना लिया है, जिसके पीछे उनके दो उद्देश्य हैं- हिंदू-विरोधी हुए बिना मुस्लिमों को आकर्षित करना तथा गैर-भाजपा दलों को एक करना. राहुल और कांग्रेस संघ की सदस्यता और उसके संगठनों के भारी विस्तार से चिंतित हैं.

ये संगठन आदिवासियों, छात्रों, युवाओं, सांस्कृतिक संगठनों, कारोबारी समुदायों और कलाकारों आदि को प्रभावित करते हैं. बीते दशक में संघ और उसके समर्थकों ने राष्ट्रवादी आख्यान को निर्देशित और परिभाषित करने के लिए 500 से अधिक स्वैच्छिक संगठनों और विचार संस्थाओं की स्थापना की है. संघ की पृष्ठभूमि वाले सेवानिवृत्त लोकसेवकों, कूटनीतिकों और रक्षा अधिकारियों को संघ-विरोधी प्रचार का प्रतिकार करने के लिए सक्रिय किया गया है. फिर भी इसने आलोचनाओं के प्रति लचीला रुख अपनाने का निर्णय लिया है.

सुबह शाखा लगाने की अपनी पुरानी परंपरा पर चलते रहने के बजाय संघ ने नेटवर्क विस्तार के बेहतर तरीके को अपनाया है. अब संघ के शीर्ष पदाधिकारी सार्वजनिक मंचों से अधिक बोलने लगे हैं, जबकि वे सीधे मीडिया को साक्षात्कार देने से बचते हैं. संघ ने सत्ता में बैठे अपने स्वयंसेवकों पर निर्भर रहने के बजाय अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का निर्णय लिया है.

अब उसे समझ में आ गया है कि सत्ता एकता का स्थायी तंत्र नहीं होती, बल्कि उसने जातिगत संघर्ष को फिर से उकसा दिया है. अभी भी संघ की लगभग 70 हजार शाखाओं में 10 लाख से अधिक लोग हिस्सा लेते हैं. धर्मांतरण रोकना तथा हिंदुत्व का विस्तार अभी भी उसके मुख्य एजेंडे बने हुए हैं.

राम मंदिर आंदोलन में विभिन्न जातियों को साथ लाने की उसकी सफलता राजनीतिक और सामाजिक रूप से अब उतनी प्रभावी नहीं रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को झटका लगा है. अब यह फिर से संघ की जिम्मेदारी हो गई है कि वह सामाजिक जुड़ाव को फिर से बनाए तथा वंचित वर्गों का समर्थन करे.

यह प्रक्रिया अभी-अभी प्रारंभ ही हुई है. यह उस समझ का परिणाम है कि केवल राजनीतिक सत्ता पाने से सभी हिंदुओं का भला नहीं हो सकता है. चमक-दमक से अस्थायी एकजुटता बनती है, पर इससे सभी जातियों एवं वर्गों के बीच सत्ता का समुचित वितरण सुनिश्चित करने के लिए विभाजन भी होता है.

टॅग्स :आरएसएसकांग्रेसBJP
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