पिछले कुछ दिनों से देश के अनेक भागों से विद्यार्थियों के आंदोलनों की खबरें सामने आ रही हैं. सभी मामले या तो प्रशासन से जुड़े हुए हैं या फिर उनका संबंध शिक्षा परिसर की आंतरिक गड़बड़ियों से है. सबसे अधिक चर्चित पश्चिम बंगाल के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर से बलात्कार और हत्या के मामले में प्रदर्शन कर रहे जूनियर डॉक्टरों का विरोध डेढ़ माह की अवधि तक पहुंच गया है.
शनिवार को मुंबई के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के विद्यार्थियों ने पीएचडी छात्र के निलंबन के विरोध में दीक्षांत समारोह में प्रदर्शन किया. उधर, पटना के एनआईटी में आंध्र प्रदेश की छात्रा के आत्महत्या करने के बाद छात्रों ने जमकर हंगामा और प्रदर्शन किया.
नई दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के छात्रों ने प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन किया, जिसमें उन्होंने छात्रावासों की अनुपलब्धता, महिला सुरक्षा और पाठ्यक्रम में सुधार न होने जैसे मुद्दे उठाए.
उत्तर प्रदेश में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्रों ने भोजन नहीं मुहैया कराए जाने पर बिरला चौराहे पर चक्काजाम किया. कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र के छात्र पुणे में महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमिशन (एमपीएससी) की परीक्षा और भरती को लेकर विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं. इन कुछ मामलों के अलावा देश में अनेक मामले अपनी जगह चल रहे हैं.
इन सभी आंदोलनों की बानगी कहीं न कहीं विद्यार्थी मन में बढ़ते असंतोष और समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिए जाने पर बढ़ते आक्रोश के संकेत हैं, जो भविष्य में अराजकता को भी जन्म दे सकते हैं. अक्सर शैक्षणिक प्रांगणों में असंतोष भड़कने पर जब आंदोलन होता है तो उसे राजनीति से जोड़ दिया जाता है.
इस आरोप को कुछ मामलों में सही भी माना जा सकता है, क्योंकि अनेक राजनेता शिक्षा क्षेत्र में भी अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने से चूकते नहीं हैं. किंतु इस बात से विद्यार्थियों की मन:स्थिति पर परदा नहीं डाला जा सकता है. आम तौर पर उनकी समस्याएं छात्रावास, परीक्षाओं, पढ़ाई और सुरक्षा से जुड़ी होती हैं. उनमें होने वाले पक्षपात या विलंब उन्हें परेशान करता है और समाधान नहीं होने पर आंदोलन को जन्म देता है.
मगर सरकार और राजनेता अपने भाषणों में विद्यार्थियों से अपेक्षाओं की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनके साथ अन्याय और परेशानियों को हल करने से कतराते हैं. हाल के दिनों में शिक्षा महंगी ही हुई है. यदि खानपान और रहने का खर्च जोड़ दिया जाए तो धन की आवश्यकता अधिक हो जाती है.
ऐसे में सरकारी संस्थान और छात्रावास सामान्य आर्थिक परिस्थितियों से आए विद्यार्थियों की शिक्षा में सहायता कर सकते हैं, किंतु उनकी समस्याओं को नजरअंदाज करना सरकारों की आदत बनती जा रही है. परिणामस्वरूप अनेक अनहोनी घटनाएं सामने आ रही हैं और विद्यार्थी आक्रामक हो रहे हैं.
सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वह समय रहते समस्याओं का हल निकालें और छात्रों को सड़कों पर न उतरने दें. अन्यथा छात्र आंदोलन के परिणाम अच्छे नहीं होते हैं. देश-दुनिया के अतीत में इस बात के अनेक उदाहरण हैं.