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सरकार से सवाल : ये पुल आखिर क्यों टूट जाते हैं?

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: July 11, 2025 09:05 IST

अंग्रेजों के जमाने के पुलों की उम्र लंबी इसलिए होती थी कि उस वक्त बंदरबांट नहीं होती थी. जितना पैसा खर्च होता था, उतने पैसे का मजबूत काम होता था. आज किसे नहीं पता कि कौन कितना प्रतिशत लेता है! 

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गुजरात में वडोदरा और आणंद को जोड़ने वाले महिसागर नदी पर बने गंभीरा पुल पर वाहन चढ़ाते समय क्या लोगों ने सपने में भी सोचा होगा कि पुल का एक स्लैब अचानक ढह जाएगा और वे बीच नदी में वाहन सहित गिर जाएंगे? लेकिन ऐसा हुआ. कुछ लोग मौत के मुंह में समा गए और कुछ घायल हो गए. 

सरकार ने मुआवजे का ऐलान कर दिया है. लोगों को मुआवजा मिल जाएगा. दो-चार दिन यह सवाल हवा में तैरता रहेगा कि गलती किसकी है? सरकार जांच के आदेश दे चुकी है. जांच होगी और रिपोर्ट किसी सरकारी फाइल में चस्पा हो जाएगी. फिर किसी को याद भी नहीं रहेगा कि उस रिपोर्ट का हुआ क्या? 

किसी ने पूछा तो कह दिया जाएगा कि पुल पुराना था, कमजोर था, सरकार ने चेतावनी जारी कर रखी थी. इस तरह मामला रफा-दफा हो जाएगा. फिर किसी दूसरे राज्य में दूसरा हादसा होगा. लोग मरते रहेंगे. सरकार जांच करती रहेगी. टूटे हुए पुल की जगह नए पुल का निर्माण होता रहेगा. 

यह सिलसिला चलता रहेगा. यही भारत की तस्वीर है और यही तकदीर है. क्या आपको याद भी है कि पिछले पांच सालों में देश में कितने पुल धराशायी हुए हैं? अकेले बिहार में ही दर्जनों पुल गिर गए. पुणे में अभी हाल ही में हादसा हुआ था. 

तब कहा गया कि पुल बंद था लेकिन लोग बाढ़ का पानी देखने के लिए पहुंच गए. लोगों का वजन पुल बर्दाश्त नहीं कर पाया इसलिए टूट गया! सरकार से सवाल पूछा गया कि यदि पुल बंद था तो लोग अपने दुपहिया वाहन लेकर पुणे के पुल पर पहुंचे कैसे? 

किसी ने आज तक जवाब नहीं दिया. वडोदरा और आणंद पुल हादसे के बारे में भी शायद ही कभी कोई जवाब मिलेगा. लेकिन सरकार से एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि ये पुल आखिर टूटते क्यों हैं? पुलों की अनुमानित उम्र कितनी होनी चाहिए? वडोदरा वाला पुल तो केवल 40 साल पहले ही बना था! 

इतनी जल्दी इतना कमजोर कैसे हो गया? कमजोरी का यह सवाल इसलिए उठता है कि अंग्रेजों के जमाने में बने ढेर सारे पुलों ने उम्र के सौ साल से भी ज्यादा पूरे किए! कानपुर-उन्नाव के बीच गंगा नदी पर 1875 मे जो पुल बना वह 1998 तक उपयोग में था. 

कासगंज के पास नदरई पुल ने भी करीब सौ साल तक साथ दिया. प्रयागराज का कर्जन ब्रिज 90 साल तक सेवाएं देता रहा. ये तो महज कुछ उदाहरण हैं. जब अंग्रेजों ने ये पुल बनाए थे तब तो तकनीक भी आज की तरह उन्नत नहीं थी. 

अब तो हमारे पास सारे तकनीकी साधन मौजूद हैं. अच्छे उपकरण हैं और बहुत अच्छी सामग्री भी है. इतनी बेहतर परिस्थितियों में बने पुल यदि उम्र के पचास साल भी पूरे नहीं कर पा रहे हैं तो इसका मतलब है कि इन पुलों को भ्रष्टाचार का दीमक उम्र से पहले ही खोखला कर रहा है. 

पटना और हाजीपुर के बीच गंगा नदी पर बने सबसे बड़े नदी पुल गांधी सेतु की कहानी तो और भी चौंकाने वाली है. इसके एक लेन का उद्घाटन 1982 में हुआ तो दूसरा लेन 1987 में शुरू हुआ लेकिन 1991 में ही स्थिति ऐसी हो गई कि इसकी मरम्मत की जरूरत पड़ने लगी. 

सन् 2000 तक तो पुल पूरी तरह से जर्जर हालत में पहुंच गया और 21 हजार करोड़ रुपए फिर से खर्च करके 2017 से 2022 के बीच इसके स्ट्रक्चर को बदला गया. क्या यह भ्रष्टाचार की खुली कहानी नहीं है? बिहार में तो इस पुल को लेकर हर कोई यही कहता है कि आटे में नमक की जगह नमक में आटा मिलाया गया अन्यथा इतनी जल्दी पुल कैसे गिर जाता? 

दुर्भाग्य की बात है कि गांधी सेतु के घटिया निर्माण के लिए किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया. दोषी ठहराने की बात तो छोड़ दीजिए, यह जानने की कोशिश भी नहीं की गई कि किन अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों की मिलीभगत थी! 

दरअसल मिलीभगत सभी की थी तो किसे कौन पकड़ता? ज्यादातर पुलों और सड़कों की यही कहानी है. अंग्रेजों के जमाने के पुलों की उम्र लंबी इसलिए होती थी कि उस वक्त बंदरबांट नहीं होती थी. जितना पैसा खर्च होता था, उतने पैसे का मजबूत काम होता था. आज किसे नहीं पता कि कौन कितना प्रतिशत लेता है! 

सबको पता है लेकिन सिस्टम इस कदर लपेटे में है कि कोई ईमानदार व्यक्ति कोशिश भी करता है तो उसे बाहर फेंक दिया जाता है. इसलिए यह तय मानिए कि पुल तब तक गिरते रहेंगे या सड़कें तब तक बहती रहेंगी जब तक कि कमीशन का बंदरबांट बंद नहीं होता. 

उम्मीद करिए कि विभिन्न राज्य सरकारें भी जागेंगी और केंद्र सरकार भी जागेगी ताकि अब जो पुल बने, उसकी उम्र लंबी हो. सड़कों और पुलों की लंबी उम्र की कामना कीजिए. कहते हैं, दुआओं में बड़ा असर होता है.

टॅग्स :गुजरातबिहारPune
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