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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: स्वविवेक की सेंसरशिप की जरूरत

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: May 1, 2020 13:42 IST

आज मीडिया का अर्थ सिर्फ कलम नहीं, जबान भी है. सच तो यह है कि जबान वाली पत्नकारिता, यानी टीवी पत्नकारिता आज कहीं ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध हो रही है. सबसे पहले और सबसे तेज की जो अंधी दौड़ आज इलेक्ट्रॉनिक पत्नकारिता में दिखाई दे रही है, वह एक खतरनाक दौड़ है. टीआरपी के लालच में जिस तरह की प्रतियोगिता आज मीडिया में चल रही है, वह अक्सर मीडिया की विश्वसनीयता को खतरे में डाल देती है. यह एक ऐसा निरंकुश प्रवाह है जो   गांवों को उजाड़ देता है, फसलों को नष्ट कर देता है.

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अभिव्यक्ति का अधिकार हमें हमारे संविधान ने दिया है और अच्छे नागरिक होने के नाते यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम जो कुछ कहें, वह न तो गलत होना चाहिए और न ही हमारे कहने का उद्देश्य स्थिति को बिगाड़ना होना चाहिए. यही उस विवेक की कसौटी है जिसकी अपेक्षा हमारा संविधान हमसे करता है. सार्वजनिक अवसरों पर और मीडिया में कुछ भी कहने को इसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए- आप चाहें तो इसे विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति कह सकते हैं.

अक्सर जब हमें लगता है कि कोई नेता या प्रवक्ता या वक्ता, या कोई सामान्य नागरिक भी, अभिव्यक्ति के अधिकार का अनुचित प्रयोग कर रहा है, तो उसके पीछे सवाल इसी विवेक का ही होता है. विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति का सीधा-सा अर्थ है- शब्दों को तौलकर बोलना, गलत उद्देश्य से न बोलना और ईमानदारी से बोलना.

ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं होता था, लेकिन पिछले एक अर्से से, आप कह सकते हैं पिछले कुछ सालों से, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों में अक्सर इस ईमानदारी का अभाव खलता रहा है. लेकिन इस सबके बावजूद जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के इस अधिकार की रक्षा के प्रति सदैव सजग रहें.

इन्हीं मूल्यों का तकाजा यह भी है कि हम सिर्फ अपने ही नहीं, दूसरों के इस अधिकार के प्रति भी ईमानदारी से सजगता बरतें. वॉल्तेअर ने कहा था, ‘हो सकता है मैं आपके विचार से सहमत न होऊं, पर अपनी बात कहने के आप के अधिकार की रक्षा के लिए मैं प्राणपण से लड़ूंगा.’

इस सारी भूमिका के परिप्रेक्ष्य में हमें टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों को देखना होगा. अभिव्यक्ति का बहुत बड़ा माध्यम हैं हमारे टीवी चैनल और इन पर कही गई कोई भी बात जल्दी ही सब तरफ पहुंच जाती है- और अक्सर असर भी होता है.

मीडिया पर किसी भी प्रकार की सेंसरशिप का समर्थन नहीं किया जा सकता. मीडिया का अपना विवेक ही यह सेंसरशिप हो सकती है जो मीडिया पर कोई अंकुश रखे. आज हमारे मीडिया को इस सेंसरशिप की आवश्यकता है- इस सेंसरशिप यानी स्वविवेक के सेंसरशिप की.

महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘समाचारपत्न एक जबरदस्त शक्ति है किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबा देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रभाव नाश की सृष्टि करता है. यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी विषैला सिद्ध होता है. अंकुश तो अंतर का ही लाभदायक सिद्ध हो सकता है.’

आज मीडिया का अर्थ सिर्फ कलम नहीं, जबान भी है. सच तो यह है कि जबान वाली पत्नकारिता, यानी टीवी पत्नकारिता आज कहीं ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध हो रही है. सबसे पहले और सबसे तेज की जो अंधी दौड़ आज इलेक्ट्रॉनिक पत्नकारिता में दिखाई दे रही है, वह एक खतरनाक दौड़ है. टीआरपी के लालच में जिस तरह की प्रतियोगिता आज मीडिया में चल रही है, वह अक्सर मीडिया की विश्वसनीयता को खतरे में डाल देती है. यह एक ऐसा निरंकुश प्रवाह है जो   गांवों को उजाड़ देता है, फसलों को नष्ट कर देता है.

आज मीडिया को इस निरंकुश प्रवाह से स्वयं अपने को बचाना है. यह बचाव सिर्फ संयम से ही हो सकता है. आसान नहीं होता अपने आप पर संयम रखना, लेकिन मीडिया की सार्थकता की रक्षा के लिए यह संयम जरूरी है. इस बात की चिंता करनी होगी कि हमारा मीडिया वह करता नहीं दिखाई दे रहा, जो उसे करना चाहिए और वह सब मीडिया में हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए. व्यावसायिकता की सारी सीमाओं के बावजूद मीडिया का यह दायित्व बनता है कि वह जिम्मेदारी की भूमिका निभाए.

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