सनातन धर्म के अनुयायियों के पवित्रतम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के तेरहवें, बाईसवें और तीसवें श्लोक में मनुष्य जीवन की व्याख्या के साथ यह समझाने का प्रयास किया गया है कि कोई व्यक्ति शरीर नहीं अपितु शाश्वत आत्मा है, जो एक शरीर से दूसरे शरीर के बीच यात्रा करती है. हालांकि कुछ शास्त्रों में यह भी दावा किया जाता है कि जिन आत्माओं की आकांक्षा की पूर्ति नहीं होती है, वे भटकती रहती हैं.
बस इन्हीं दो आध्यात्मिक विचारों के बीच महाराष्ट्र की राजनीति को एक नई हवा मिल गई है और राज्य में पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच मुकाबले के लिए वातावरण तैयार हो गया है. इस पूरे माहौल को तैयार करने के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वक्तव्य है, जो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार को लेकर कहा गया. उनके अनुसार पवार के चलते ही महाराष्ट्र में राजनीतिक उठापटक होती रहती है.
प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी सभा में शरद पवार का नाम लिए बिना कहा था कि महाराष्ट्र में एक ‘भटकती आत्मा’ है. अगर उसे सफलता हासिल नहीं होती है तो वह दूसरों के अच्छे काम को खराब करती है. महाराष्ट्र इसका शिकार रहा है. ये खेल 45 साल पूर्व शुरू किया गया था. ये सिर्फ उनकी निजी महत्वाकांक्षा के लिए था और फिर महाराष्ट्र हमेशा एक अस्थिर राज्य रहा. इसी का परिणाम था कि कई मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए.
इसके बाद से प्रधानमंत्री मोदी को भी उनके वक्तव्य के उत्तर मिलने लगे हैं. कोई कह रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी की आत्मा दिल्ली से महाराष्ट्र में आती है और भटकती है. कोई इसे राज्य की संस्कृति के खिलाफ मान रहा है और चुनाव में विकास कार्यों की बात करने के लिए कह रहा है. हालांकि शरद पवार भी प्रधानमंत्री को जवाब देने में पीछे नहीं हैं. खुद के लिए वह कह रहे हैं कि वह अस्वस्थ आत्मा हैं.
वह किसानों का दर्द बताने के लिए भटकते हैं, महंगाई से परेशान आम आदमी के लिए भटकते हैं. अब सवाल यह है कि चुनावी राजनीति भौतिक स्वरूप से आध्यात्मिक स्वरूप की तरफ अचानक क्यों भटकने लगी? स्पष्ट है कि इसके पीछे कारण टूटे हुए दलों को मिल रही सहानुभूति है. वह राकांपा का शरद पवार गुट हो या फिर शिवसेना का ठाकरे गुट, कहीं न कहीं उनके नेता खुद के साथ धोखा होने का संदेश देने में सफल हो रहे हैं.
उसी धोखाधड़ी को सिरे से झुठलाने की कोशिश में चाहे शरद पवार हों या उद्धव ठाकरे, दोनों को सीधे निशाने पर लेकर किनारे करने की कोशिश जारी है. राकांपा नेता शरद पवार का राजनीतिक कैरियर देखा जाए तो वह महत्वाकांक्षा के बीच उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. उन्होंने वे सभी काम किए हैं, जिनकी वह इन दिनों आलोचना करते हैं. वह बहुत कम अवसरों पर ही राजनीतिक स्थिरता के पक्ष में दिखाई दिए हैं.
साथ ही समस्त किस्म के बैर के बाद भी वह सत्ताधारियों से हाथ मिलाते या स्वयं सत्ता की जद्दोजहद करते पाए गए हैं. उनका पहली बार मुख्यमंत्री बनना हो या दोबारा कांग्रेस में राजीव गांधी के साथ शामिल होना या फिर सोनिया गांधी के राजनीति में आने के बाद कांग्रेस से अलग होना हो, सभी मामलों में उनकी राजनीति की परिणति सत्ता पाने के साथ हुई है.
केवल वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के गठन या फिर महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार का गठन होने पर वह सत्ता का कोई समीकरण नहीं बना सके. यद्यपि वर्ष 2019 में उन्होंने पिछली कसर निकालते हुए विपरीत विचारधारा के दल शिवसेना के साथ सत्ता साझा करने में भी संकोच नहीं किया. इसलिए उनके राजनीतिक दांव-पेंच और उसके स्तर से इंकार नहीं किया जा सकता है.
किंतु पवार को अपनी चाल को बहुत ही सहजता से आम आदमी से जोड़ने में महारत हासिल है. ताजा मामले में उन्होंने भटकती आत्मा को भी आम जन की समस्याओं से जोड़ लिया. पूर्व में सरकार के गठन को भी राज्य की आवश्यकता बता कर उसे उचित साबित कर दिया था. दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी राजनीति में 45 साल की सक्रियता का हिसाब लेते हुए पवार पर आक्रामक हुए हैं.
वह उनकी पहचान को मजबूत साबित करने की बजाय तोड़-फोड़ और राजनीतिक अस्थिरता से तैयार बिगड़ी छवि को गढ़ने की कोशिश में हैं, जिससे लोगों के मन में तैयार हो रही सहानुभूति की भावना को कम किया जा सके. इसी वजह से पवार भी मोदी को उनके समर्थन में दिए गए वक्तव्यों का स्मरण करा रहे हैं. हालांकि उनका कोई प्रति उत्तर नहीं आ रहा है, किंतु हवा का रुख बदलने के प्रयासों में थोड़ी ताकत अवश्य मिल रही है.
इसका लाभ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे तक मिल सकता है, क्योंकि जहां तक शरद पवार की बात है, उनसे तो 45 साल की बात की जा रही है और उद्धव ठाकरे के लिए तो यह विषय ढाई साल में ही सिमट जाता है. मजेदार बात यह है कि लोकसभा चुनाव भगवान श्रीराम के नाम के जयकारे से आरंभ हुआ, लेकिन जैसे-जैसे पारा चढ़ रहा है, वैसे-वैसे राम के नाम का स्मरण कम होता जा रहा है.
किंतु परमात्मा के नाम के स्थान पर बात आत्मा ही नहीं, भटकती आत्मा पर जा पहुंची है. भारतीय राजनीति में यह सोच किसी एक व्यक्ति विशेष पर सीमित या केंद्रित नहीं की जा सकती है. देश में सत्ता के लिए उठापटक का इतिहास नया नहीं है. हर राज्य में महत्वाकांक्षी नेताओं को देखा जा सकता है. इसलिए किसी एक को भटकती आत्मा कहने से अनेक और आत्माएं भी असंतुष्ट हो सकती हैं.
चुनाव की हद तक यह बात मतों को आकर्षित करने के लिए कही जा सकती है, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर बैठकर आईना देखना सभी के लिए आवश्यक है. तोड़-फोड़ के कारनामों से कोई दल अछूता नहीं है. यही राजनीति का दुर्भाग्य भी है. इसे न तो तार्किक अंदाज में सही ठहराया जा सकता है और न ही बरगलाया जा सकता है.