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आरएसएसः दूसरा चरण आज्ञापालक समाज बनाने का, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Published: March 23, 2021 1:01 PM

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मिलनसार प्रचारक दत्तात्रेय होसबले को शनिवार को आरएसएस का नया सरकार्यवाह चुन लिया गया हैं.

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ठळक मुद्देहोसबले, 2009 से संघ के सह-सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे.दत्तात्रेय होसबले संघ सरकार्यवाह पद पर आसीन होने वाले दूसरे कन्नड़ भाषी बन गये हैं.एच वी शेषाद्रि पहले कन्नड़ भाषी थे, जो 1987 से नौ साल तक सरकार्यवाह के पद पर रहे थे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्यादातर आलोचक हिंदुत्ववादियों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान को अपने विचारधारात्मक प्रोजेक्ट में खींच लेने की प्रक्रिया को नजरअंदाज करते हैं.

यह प्रक्रिया बालासाहब देवरस के जमाने से ही जारी है. देवरस ने 1974 में पुणे में दिए गए अपने एक भाषण में इसका सिद्धांतीकरण किया था. गलतियां करने और सुधारने की धीरे चलने वाली लेकिन लंबी प्रक्रिया के जरिये संघ और भाजपा ने इसे व्यवहार में उतार दिया है. आजादी के पहले और बाद से चल रही विभिन्न बहुसंख्यकवादों की प्रतियोगिता में कई अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठा कर और बिना थके प्रयास करते रहने के कारण हिंदू बहुसंख्यकवाद अन्य बहुसंख्यकवादों से बहुत आगे निकल गया है.

जितना हम लोग सोच सकते हैं, संघ उससे कहीं ज्यादा लचीला और परिवर्तनशील है. अपनी विचारधारा के मर्म पर कायम रहने के अलावा किसी पहले कही गई बात को दोहराते रहने में उसकी दिलचस्पी नहीं है. मोहन भागवत ने इस बारे में संघ के मौजूदा नेतृत्व का रवैया स्पष्ट किया है. वे लोग पहले कही गई बातों को दो भागों में बांट कर देखते हैं.

एक भाग में वे बातें रखी जाती हैं जो किसी खास ‘प्रसंग-विशेष’ के कारण कही गई होंगी, और दूसरे भाग में वे जिनका महत्व ‘सदा काल’ के लिए है. इस युक्ति के कारण संघ को विभिन्न विमर्शो को अपनाने और छोड़ने की सुविधा मिल जाती है. संघ इस युक्ति को अपने विमर्श के दायरे से बाहर के विचारों के लिए इस्तेमाल करता है. इस मामले में देवरस का 1974 का व्याख्यान भी याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने हिंदू समाज की कड़ी आलोचना करने वाले समाज सुधारकों की बातें भुला कर उन्हें ‘हिंदू चिंतक’ के रूप में प्रात:स्मरणीय हस्तियों की तरह स्वीकार करने का कार्यक्रम पेश किया था.

समझने की बात यह है कि अब संघ परिवार अपने प्रोजेक्ट के दूसरे चरण में है. पहला चरण चुनावी प्रभुत्व स्थापित करने और सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक विमर्श को इस कदर हिंदू-उन्मुख बनाने का था कि अगर कभी चुनावी प्रभुत्व गड़बड़ा जाए तो भी सत्ता में आने वाली ताकतें भाजपा की कार्बन-कॉपी ही लगें. दूसरा चरण आज्ञापालक समाज बनाने का है.

वर्ग-संघर्ष, जाति-संघर्ष, समाज सुधारों के लिए संघर्ष, ब्राह्वणवाद-विरोध, सामाजिक न्याय के नाम पर अस्मिताओं का टकराव और इसे आरक्षण की मांग में घटा देना, अल्पसंख्यक अधिकारों की लड़ाई, नाना प्रकार के अन्य अधिकारों की दावेदारी, जेंडर डेमोक्रेसी के लिए संघर्ष, हर तरह के नए घटनाक्रम को क्रांति की संज्ञा देने का रवैया- यह पूरी भाषा उदारतावादी लोकतंत्र के दायरे में टकरावमूलक राजनीति की है जिसके हम सब अभ्यस्त हो चुके हैं. संघ भी जरूरत पड़ने पर टकरावमूलक राजनीति और गोलबंदी करता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण रामजन्मभूमि आंदोलन है.

पर यह उसकी कार्यनीति होती है, दीर्घकालीन रणनीति और विचारधारा नहीं. दरअसल, संघ परिवार इस टकरावमूलक भाषा को मिल चुकी विमर्शी और व्यावहारिक वैधता को खत्म करना चाहता है. इसके लिए वह परंपरा का आह्वान कर रहा है, और भारतीय परंपरा इतनी विविध है कि उसमें से इस विचार के पक्ष में दृष्टांत खोज लेना आसान है. वैसे, यह उसका कोई नया विचार नहीं है.

संघ के दस्तावेजों में उसके सिद्धांतवेत्ताओं द्वारा संघर्षविहीन सुधार, सामंजस्य और समरसता के पहलुओं को रेखांकित करने के विचारधारात्मक आग्रह स्पष्ट रूप से मौजूद हैं. जहां तक किसान आंदोलन का ताल्लुक है, उसकी निरंतरता इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसने इस वैचारिक प्रोजेक्ट की बेरोकटोक यात्र को एक बारगी रोक दिया है.

इसके जरिये बनने वाला प्रतिरोध का व्याकरण अभी पूरी तरह से तैयार नहीं हुआ है. लेकिन इसके कारण नए विमर्शो की गुंजाइश खुली है. नई सामाजिक-राजनीतिक एकताएं उभरी हैं. सांप्रदायिकता के दबाव में टूट चुकी पुरानी एकताओं की वापसी और नई बहसों की शुरुआत हुई है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह किसान आंदोलन व्यवस्था और उसकी संचालक सरकार द्वारा दी गई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आज्ञाओं को तिरस्कार के साथ देखते हुए अवज्ञा की उस संस्कृति को पुनर्जीवित कर रहा है जिसकी रचना गांधी के नेतृत्व में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में हुई थी.

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति के इन आयामों ने मिल कर एक आज्ञा बनाम अवज्ञा के अंतर्विरोध को जन्म दे दिया है. व्यवस्था पर काबिज ताकतों ने अगर विभिन्न सामाजिक शक्तियों की सहमति प्राप्त करके इसे जल्दी ही हल नहीं किया, तो लोकतांत्रिक प्रणाली तकरीबन वैसे ही संकट में फंस सकती है जैसा सत्तर के दशक के पूर्वार्ध और मध्य (संपूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर आपातकाल तक) में पैदा हुआ था.

टॅग्स :आरएसएसमोहन भागवतदत्तात्रेय होसबालेभारतीय जनता पार्टीनागपुरमुंबई
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