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ऋषि दर्डा का ब्लॉग: पीड़ितों की आवाज सुनें और आरोपियों की जांच करें

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Updated: October 14, 2018 03:39 IST

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पिछले कुछ दिन समाज के लिए आंखें खोल देने वाले रहे हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों से अनेक महिलाओं ने सामने आकर मुखर होते हुए र्दुव्‍यवहार करने वालों को बेनकाब करने का साहस दिखाया है। यह आंदोलन मनोरंजन उद्योग में तनुश्री दत्ता के साथ शुरू हुआ जिन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए अभिनेता नाना पाटेकर का एक अलग रूप उजागर किया। समय के साथ पत्रकारिता, मनोरंजन, राजनीतिक और कॉर्पोरेट जगत से महिलाएं सामने आईं और इस मुद्दे पर बात की।

उल्लेखनीय है कि हाव्रे वाइंस्टीन मामला अमेरिका में पहले दिन से ही पहले पेज की खबर बना रहा। हालांकि यह हजारों मील दूर हो रहा था, यहां भारत की धरती पर भी ‘मी टू’ आंदोलन उसके खिलाफ गर्माया। फिर भी, जब एक भारतीय अभिनेत्री सामने आई और एक वरिष्ठ अभिनेता के बारे में बात की तो किसी भी अखबार ने इसे पहले पन्ने पर प्रमुखता के साथ नहीं छापा। न्यूज मीडिया ने ‘सही’ समय का इंतजार किया और 7-10 दिनों बाद जाकर यह पहले पन्ने की खबर बनी। और भी महिलाएं अन्य दोषियों के बारे में अपनी कहानियों को साझा कर रही हैं और ‘मी टू’ आंदोलन हमारे देश में एक ऐतिहासिक आंदोलन बनने के लिए तैयार है। उम्मीद है कि इससे हमारे देश में लोगों की मानसिकता और तंत्र में बदलाव आएगा।

यह चौंका देने वाला है कि कैसे भारत में बहस पीड़िता और आरोपी की विश्वसनीयता के दायरे में घूम रही है। हर महिला अपना स्थान पाने की हकदार है और उसकी शिकायत सुनी जानी चाहिए। किसी भी पुरुष या महिला को यौन शोषण के बारे में बात करने के लिए बहुत साहस की जरूरत होती है। तथ्य यह है कि पीड़ितों के भावनात्मक घाव भरने में कई साल लग जाते हैं और उनके बोलने के समय पर सवाल उठाते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। परिवार भावनात्मक रूप से अधर में झूलता रहता है और आघात से उबरने में समय लगता है।

हाव्रे वाइंस्टीन मामले की गहन छानबीन से पता चलता है कि तीन दशक से ज्यादा के समय में करीब सौ अभिनेत्रियों के साथ र्दुव्‍यवहार किया गया और उनमें से अधिकांश ने कई कारणों से चुप रहने का फैसला किया। अमेरिका जैसे विकसित देश में महिलाओं को यह खुलासा करने में समय लगा कि उनके साथ र्दुव्‍यवहार किया गया। इससे समझा जा सकता है कि हमारे जैसे अपेक्षाकृत रूढ़िवादी देश में महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से खड़े होकर अपराधी की ओर उंगली उठाना इतना आसान नहीं है।मैं महिलाओं के साथ खड़ा हूं जो ‘मी टू’ आंदोलन के जरिए र्दुव्‍यवहार करने वालों के खिलाफ अपना दुख, पीड़ा और क्रोध प्रकट कर रही हैं। उन्हें अपने सुप्त दर्द से कुछ राहत पाने की आशा ही है, जो आंदोलन को बढ़ाने के लिए एक उत्प्रेरक कारक प्रतीत हो रही है। मीडिया और समाज को इसे बहुत संवेदनशील तरीके से लेना चाहिए और किसी भी तरीके का अतिरंजित बयान जारी करने से पहले महिलाओं तथा

उनके परिवार की मानसिक स्थिति को  समझना चाहिए। यही वह जगह है जहां विश्वसनीय पत्रकारिता और बेहद जिम्मेदारी भरी रिपोर्टिग को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।जैसा कि सभी आंदोलनों के साथ होता है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। ‘मी टू’ का निहित स्वार्थो के लिए इस्तेमाल कर किसी निदरेष व्यक्ति को बदनाम करना आसान है। समाज का जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ‘मी टू’  आंदोलन कुछ निहित स्वार्थो द्वारा ब्लैकमेल के उपकरण के रूप में न बदल जाए। यदि ऐसा होता है तो विश्वसनीय मामले पीछे चले जाएंगे और आंदोलन बेजान हो जाएगा।

मैं समझता हूं, इस आंदोलन के संभावित परिणामों के बारे में गंभीर चिंताएं हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कई लोग इसे गंभीरता से देख रहे हैं कि कैसे इस मामले को संभाला जा रहा है और ताकतवर लोगों के बारे में ‘सनसनीखेज खुलासे’ में बदला जा रहा है। मैं इन वास्तविक चिंताओं के साथ हूं। यह दुख की बात है, लेकिन सच है कि एक देश के रूप में, हम पारस्परिक रूप से ऐसा सम्मानपूर्ण वातावरण बनाने में सफल नहीं रहे हैं जहां महिला-पुरुष दोनों एक दूसरे को ‘सुन’ सकें।  अतीत में अपनी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण सार्वजनिक बहस में महिला को पुरुष के बराबर दर्जा कभी नहीं मिला है। लेकिन समय पहले ही बदल चुका है (कम से कम शहरी क्षेत्र में) और हमें उसके अनुसार अपने तर्क बदलने चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि लिंग कोई भी हो, हमें ‘उत्पीड़न’ पर ध्यान देना चाहिए। हमें विश्वास करने की जरूरत है कि पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं और जब/यदि वे होते हैं तो उन्हें भी ‘सुने’ जाने की जरूरत है।

मुङो लगता है कि कार्यस्थल पर, घर में, सामाजिक स्थलों पर।। हर जगह यह अभियान मानवीय गरिमा के सम्मान और निष्पक्षता के बारे में है। और मुङो यह कहते हुए गर्व है कि हम लोकमत समूह में इन मुद्दों पर बहुत संवेदनशील हैं। अपने परिसरों में यौन उत्पीड़न के प्रति हमारी नीति जीरो टॉलरेंस की है। लोकमत मीडिया के भीतर हमने अपने कर्मचारियों के संबंध में इस मुद्दे पर बहुत प्रगतिशील कदम उठाए हैं। जीरो टॉलरेंस की नीति एक यौन उत्पीड़न शिकायत समिति के रूप में पांच साल पहले औपचारिक रूप से पेश की गई थी, जिसमें पांच महिलाएं शामिल थीं। कोई भी जो सामने या अन्य तरह से जरा सा भी असहज महसूस कर रहा है, वह इस समिति को लिख सकता है। समुचित जांच के बाद न्याय प्रदान किया जाएगा। अपराधी को छोड़ा नहीं जाएगा। पीड़ित को न्याय मिलेगा और अपराधी को सजा।‘मी टू’  आंदोलन कई सामाजिक समीकरणों को बदलेगा और समूचे तंत्र में विचार की एक नई लहर लाएगा। हम अंतत: भारत को ऐसे देश के रूप में देखेंगे, जहां महिलाओं के साथ सहज ढंग से सही व्यवहार होता है और समाज के सदस्यों को इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है।

टॅग्स :# मी टू
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