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क्या हम गुणवत्ता की धारणा को आज भी आसानी से समझ सकते हैं?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 11, 2025 21:33 IST

अक्सर सार्वजनिक मंचों पर व्यक्तिगत या पेशेवरों (डॉक्टर, वकील वगैरह) के विभिन्न पहलुओं की गुणवत्ता या खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता आदि की चर्चा होती रहती है. नई शिक्षा नीति के आने के बाद अब शिक्षा की गुणवत्ता पर भी चर्चा जोर शोर से हो रही है.

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ठळक मुद्देहम अक्सर विश्वस्तरीय शहरों, चिकित्सा सुविधाओं या सड़कों की बातें भी करते रहते हैं. अमेरिका की सड़कों की गुणवत्ता खराब है और उनके राज्य की सड़कों की स्थिति उससे अच्छी है. आर्थिक हो या सामाजिक क्षेत्र-गुणवत्ता हमारी प्रगति और संतुष्टि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

क्या हम गुणवत्ता की धारणा को आज भी आसानी से समझ सकते हैं? क्या भारत जैसे महान देश में सभी लोग अपने जीवन के हर क्षेत्र में ‘गुणवत्ता’ पर जोर देते हैं? कुछ सप्ताह पहले मैंने सुखविंदर सिंह का एक गाना सुना. यह गुणवत्ता को समर्पित था. ‘क्वालिटी एंथम’ को क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) ने काफी पहले जारी  किया था. मैंने ‘क्यूसीआई’ के बारे में सुना तो था, लेकिन इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी, लेकिन गाना मुझे मजेदार लगा और इसने मुझे गुणवत्ता की अहमियत के बारे में गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया. अक्सर सार्वजनिक मंचों पर व्यक्तिगत या पेशेवरों (डॉक्टर, वकील वगैरह) के विभिन्न पहलुओं की गुणवत्ता या खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता आदि की चर्चा होती रहती है. नई शिक्षा नीति के आने के बाद अब शिक्षा की गुणवत्ता पर भी चर्चा जोर शोर से हो रही है.

हम अक्सर विश्वस्तरीय शहरों, चिकित्सा सुविधाओं या सड़कों की बातें भी करते रहते हैं. अर्थात, ऐसे उच्च मानक, जो दुनिया के बेहतरीन स्तर से मेल खाते हों. एक मुख्यमंत्री ने अपने अमेरिका दौरे के बाद एक बार सार्वजनिक रूप से कहा कि उनके राज्य की सड़कें अमेरिका से बेहतर हैं. उनका मतलब साफ था कि अमेरिका की सड़कों की गुणवत्ता खराब है और उनके राज्य की सड़कों की स्थिति उससे अच्छी है.

जाहिर है, संदर्भ सड़कों की गुणवत्ता को लेकर था. इसलिए, मानवीय जीवन को प्रभावित करने वाले आर्थिक हो या सामाजिक क्षेत्र-गुणवत्ता हमारी प्रगति और संतुष्टि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. पश्चिमी दुनिया में लोग बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों और शहरों के विस्तार के संदर्भ में जीवन शैली की गुणवत्ता के बारे में बात करते हैं. मुंबई और दिल्ली में भी लोग जीवन की गुणवत्ता की चर्चा करते पाएं जाते हैं,

खासकर तब जब हवा में प्रदूषण बढ़ता है और सड़कों पर ट्रैफिक की अव्यवस्था होती है. वन विभाग से संबद्ध मेरे मित्र वनों की गुणवत्ता की बात करते हैं. अन्य मित्र शासन से बेहतरीन स्तर की गुणवत्ता (गुड गवर्नेंस) की उम्मीद रखते हैं. क्यूसीआई एक स्वतंत्र संस्था है. गुणवत्ता को बढ़ावा देने के लिए 1997 में इसे स्थापित किया गया था.

जिसके साझेदार उद्योग संगठनों में एसोचैम, फिक्की और सीआईआई शामिल हैं. इस संस्था को बनाकर पहल तो अच्छी की गई थी, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? क्या हम शिक्षा, शासनतंत्र और उन खाद्य वस्तुओं में गुणवत्ता ला पाए हैं, जो सड़कों के किनारे बेची जाती हैं और जिनका सेवन लाखों युवा बिना सेहत की परवाह किए करते रहते हैं?

क्यूसीआई का उद्देश्य ‘गुणवत्ता के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र’ बनाना रहा है. इसने विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादों, सेवाओं और व्यक्तियों के लिए प्रमाणित सेवाएं शुरू कीं, लेकिन इसके आगे यह सर्वोच्च संस्था अपने काम में सफल नहीं हो पाई. तो, सवाल उठते हैं कि ‘गुणवत्ता’ को दैनिक जीवन में कैसे हासिल किया जा सकता है?

क्यूसीआई के अलावा अन्य कौन से संबंधित पक्ष हैं? गुणवत्ता कौन प्रदान करेगा? लाभार्थी कौन हैं? ‘आम आदमी’ से जुड़े ऐसे और भी कई मुद्दे मुझे परेशान करते हैं क्योंकि मैं गुणवत्ता का हामीदार हूं. क्या हम गुणवत्ता की धारणा को आज भी आसानी से समझ सकते हैं? क्या भारत जैसे महान देश में सभी लोग अपने जीवन के हर क्षेत्र में ‘गुणवत्ता’ पर जोर देते हैं?

क्या जनता वास्तव में समझती हैं कि गुणवत्ता क्या होती है? किंतु गुणवत्ता की कोई एक समग्र परिभाषा नहीं मिलती. क्यूसीआई ने 2007 से डी.एल. शाह ‘गुणवत्ता पुरस्कार’ देना आरंभ तो किया है, लेकिन वह संस्था गुणवत्ता की स्पष्ट परिभाषा नहीं बता सकी है. राजनीति से प्रेरित भारतीय समाज में नागरिक सुशासन के बारे में भी सोचते हैं, जिसका अर्थ है शासनतंत्र में गुणवत्ता.

क्या हम उन लोगों के लिए कुछ मानक तय कर सकते हैं जिन्हें हम पांच साल में एक बार बहुमूल्य मत देकर चुनते हैं? आखिरकार, लोकतंत्र में अच्छे शासन की नींव नेताओं की ‘गुणवत्ता’ पर ही टिकी होती है. ईमानदार और शिक्षित राजनीतिक नेताओं के साथ-साथ नौकरशाह, तकनीकी विशेषज्ञ और अच्छे नीति निर्माता ही वह शासन दे सकते हैं जिसकी अपेक्षा जनता (मतदाता) करती है.

सिर्फ ‘अच्छे शासन’ की सरकारी संस्थाओं को खोलने से काम नहीं चलेगा. टोटल क्वालिटी मैनेजमेंट के सलाहकार सुनील देशपांडे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर कुछ राज्यों को मुख्यमंत्री कार्यालय में गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली के माध्यम से सुधार लाने के लिए चुना गया था. लेकिन यह सराहनीय पहल बाद में बंद कर दी गई. पता नहीं क्यों?

शासनतंत्र में गुणवत्ता ही वह आधार है जो सड़क निर्माण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस व्यवस्था और गैर मिलावटी खाद्य जैसी सेवाओं में भी गुणवत्ता ला सकती है. दुर्भाग्य से, हमारे यहां गुणवत्ता कोई अहम मुद्दा नहीं बन पाई है. गुणवत्ता काउंसिल की देशभर में कोई प्रभावी उपस्थिति नहीं है, न ही राज्यों में इसकी शाखाएं या क्षेत्रीय परिषदें हैं जो प्रशिक्षित विशेषज्ञों की मदद से गुणवत्ता को बढ़ावा दे सकें.

यदि भारत को गुणवत्ता के क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भर’ बनना है, तो बेहतर शासन के माध्यम से निरंतर प्रयास करने होंगे. इससे स्वास्थ्य सेवा में सुधार होगा, सड़क दुर्घटनाएं कम होंगी, शहर साफ-सुथरे और हरे-भरे रहेंगे. शिक्षा प्रणाली में सुधार होगा, जिससे भारत का भविष्य बेहतर बनेगा. सरकार को इस तरफ ध्यान देना होगा

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