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ब्लॉग: खुद को ज्यादा पिछड़ा साबित करने की होड़

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: November 17, 2023 15:00 IST

भारत में होड़ लगी हुई है कि कौन दूसरों से ज्यादा पिछड़ा हुआ है। दुनिया में अन्यत्र जनता तथा राजनीतिक नेता ज्यादा प्रगतिशील हैं। वे कठोर परिश्रम, प्रतिभा, गुणवत्ता, निष्ठा, रचनात्मकता तथा दूसरे की जाति पर ध्यान दिए बिना आगे बढ़ रहे हैं।

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ठळक मुद्देभारत में होड़ लगी हुई है कि कौन दूसरों से ज्यादा पिछड़ा हुआ हैवहीं दुनिया में अन्यत्र जनता तथा राजनीतिक नेता भारत से ज्यादा प्रगतिशील सोच के हैंवे कठोर परिश्रम, प्रतिभा, गुणवत्ता, निष्ठा तथा दूसरे की जाति पर ध्यान दिए बिना आगे बढ़ रहे हैं

डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर दलितों के प्रति अपने समर्थन के लिए चर्चित रहे लेकिन उन्होंने जाति प्रथा खत्म करने की ठोस वकालत भी की थी। इसके बावजूद स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद संविधान जिसके शिल्पकार बाबासाहब थे, को अपनाने के सात दशक गुजर जाने के पश्चात भी उनके तथाकथित अनुयायी अलग-अलग राजनीतिक मुखौटे पहनकर खुलेआम जाति-केंद्रित राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। वे यह सब चुनाव जीतने के लिए कर रहे हैं।

एक बात तो हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि इन सबसे वंचितों को लाभ नहीं होने वाला। दुर्भाग्य से भारत में इसी बात की होड़ लगी हुई है कि कौन दूसरों से ज्यादा पिछड़ा हुआ है। दुनिया में अन्यत्र जनता तथा राजनीतिक नेता ज्यादा प्रगतिशील हैं। वे कठोर परिश्रम, प्रतिभा, गुणवत्ता, निष्ठा, रचनात्मकता तथा दूसरे की जाति पर ध्यान दिए बिना आगे बढ़ रहे हैं।

डॉ आंबेडकर जातिप्रथा को सामाजिक बुराई मानते थे और वह यह महसूस करते थे कि जातिविहीन व्यवस्था से भारत बेहतर और एकजुट होगा लेकिन वे बातें अब इतिहास हो गई हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो जातिगत सर्वेक्षण का ब्यौरा सार्वजनिक किया, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दी वह कदम स्पष्ट रूप से प्रतिगामी है। इन सबके बीच सामाजिक समावेशिता का मसला गौण हो गया है।

नीतीश कुमार का फैसला शायद कानूनी लड़ाई को जन्म देगा। (सुप्रीम कोर्ट ने सन् 1992 में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी थी)। हालांकि फिर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही 10 फीसदी आरक्षण गरीबों के लिए बढ़ाने को इजाजत दे दी थी किंतु बिहार के मुख्यमंत्री का कदम विशुद्ध राजनीति से प्रेरित है। उनके फैसले से साबित होता है कि उनका ‘सुशासन मॉडल’ असफल हो गया है और गरीबी अब भी बिहार के लिए अभिशाप बनी हुई है।

राज्य की 34 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीबी से जूझ रही है, नौकरियां न्यूनतम हैं, अपराधों पर अंकुश नहीं है और कोई बड़ा उद्योग बिहार नहीं जाना चाहता लेकिन नीतीश लगातार चुनाव जीतते जा रहे हैं। नीतीश कुमार ने सत्ता के लिए सारे जोड़तोड़ किए। विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ हाथ मिलाया है।

समता पार्टी से लेकर जनता दल का गठन किया, एनडीए में शामिल हुए, जनता दल (यू) का नेतृत्व किया, महागठबंधन बनाया, ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल हुए। वह 2005 में भाजपा के समर्थन से ही पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। नीतीश ने इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की है। लगा था वे बिहार में कुछ अलग कर दिखाएंगे किंतु जातिगत राजनीति वाले इस पूर्वी राज्य के सबसे लंबी अवधि तक मुख्यमंत्री बने रहने वाले नेता बनकर रह गए। उनके जातिगत सर्वेक्षण के जुएं ने भाजपा समेत सभी को चौंका दिया है।

मैं जातियों, उपजातियों को बिहार की राजनीति में महत्व दिए जाने से काफी चिंतित हूं। राजनेता जातियों के बीच खतरनाक लकीरें खींच रहे हैं। इससे बिहार का सामाजिक तानाबाना गड़बड़ा जाएगा। भारत एक ऐसा देश बनता जा रहा है जहां सरकार से किसी न किसी रूप में आरक्षण या सौगात मांगने का सिलसिला चल रहा है। भोजन हो या नौकरी, स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश हो या कम अंकों से परीक्षा में उत्तीर्ण करने का सवाल हो या लैंगिक आधार, आरक्षण या सरकार से अपने पक्ष में कदम उठाने के लिए आवाज उठाई जा रही है।

शुरुआत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में सिर्फ अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था। उसके बाद 1980 में मंडल आयोग पर सवार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण की लहर पर उभरा। उसके पश्चात अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण (खासकर बिहार में) देने की गूंज सुनाई देने लगी। अल्पसंख्यक भी आरक्षण की मांग कर ही रहे हैं। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय आरक्षण के लिए अड़ा हुआ है।

जातिगत जनगणना के पैरोकारों का तर्क है कि इसका उद्देश्य वंचित तबकों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना है- इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन इसका गुप्त उद्देश्य यह पता लगाकर अपने लिए वोट बैंक तैयार करना है कि किस जाति के लोगों की संख्या अधिक है।

एक समय ‘सुशासन बाबू’ कहे जाने वाले नीतीश कुमार बेहद चतुर नेता हैं। जातिगत जनगणना के अपने ताजा पैंतरे से उन्होंने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जमकर हलचल पैदा कर दी है और इससे देश के भविष्य को नुकसान हो सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल और कृषि मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री तक का दावेदार समझा जा रहा था। उनकी राष्ट्रीय छवि स्थापित हुईं थी लेकिन राजनीति की राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ बहने से इनकार कर वह प्रादेशिक क्षत्रप बने रहे।

बिहार न केवल एक अबूझ पहेली है बल्कि आर्थिक-सामाजिक ढांचे में उसके प्रति अच्छे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इसके लिए नीतीश और लालू जैसे नेताओं की विफलता जिम्मेदार है। फरवरी 2013 वैश्विक बिहार सम्मेलन में भाग लेने के बाद पूर्व नौकरशाह तथा योजना आयोग के सदस्य एनकेसिंह ने अपनी पुस्तक ‘द न्यू बिहार’ में लिखा था, ‘‘स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार, शिक्षा की व्यापक पहुंच और व्यावसायिक शिक्षा की पहल से बिहार का खोया गौरव लौट आया है।’’

उनकी इन पंक्तियों के 10 साल बाद अब बिहार जाति के भंवर में बुरी तरह डूब रहा है, जो बेहद दुःखद है। बिहार के लिए भी और भारत के लिए भी। पिछड़ा होना या रहना कोई अच्छी बात नही है पर नेताओं को कौन समझाए?

टॅग्स :आरक्षणनीतीश कुमारजेडीयूBJPनरेंद्र मोदी
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