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भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: सरकारी बैंकों में करना होगा आमूल परिवर्तन

By भरत झुनझुनवाला | Published: March 31, 2019 6:17 AM

2018-19 में अब तक केंद्र सरकार लगभग 100 हजार करोड़ रु. की पूंजी उपलब्ध करा चुकी है. ये रकमें सरकारी बैंकों को इसलिए उपलब्ध करनी पड़ीं क्योंकि इनके द्वारा घाटा खाया जा रहा था और इनके डूबने की शंका थी.

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वर्ष 2017-2018 में केंद्र सरकार ने सरकारी बैंकों को 88 हजार करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध कराई है. वर्तमान वर्ष 2018-19 में अब तक केंद्र सरकार लगभग 100 हजार करोड़ रु. की पूंजी उपलब्ध करा चुकी है. ये रकमें सरकारी बैंकों को इसलिए उपलब्ध करनी पड़ीं क्योंकि इनके द्वारा घाटा खाया जा रहा था और इनके डूबने की शंका थी. ये न डूबें इसलिए सरकार ने इसमें पूंजी  निवेश किया.

इन रकमों की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार का वर्तमान वर्ष में कुल खर्च लगभग 24 लाख करोड़ रुपए है. इसमें एक लाख करोड़ रुपए सरकारी बैंकों में पूंजी निवेश के रूप में किया गया है.

सरकार के खर्च के प्रत्येक एक रुपए में लगभग 4 पैसे सरकारी बैंकों को पूंजी के रूप में दिए जा रहे हैं. इस रकम की विशालता का दूसरा अनुमान यह है कि वर्तमान वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा में लगभग 50 हजार करोड़ रुपए की पूंजी खर्च की  जा रही है. जितनी रकम से पूरे देश में मनरेगा चलाया जा रहा है उससे दूनी रकम सरकारी बैंकों को अपने घाटे की भरपाई के लिए पूंजी के रूप में दी जा रही है. यह दुरूह परिस्थिति हमें अवसर देती है कि सरकारी बैंकों की मूल दिशा पर विचार करें.

सरकारी बैंकों की सही स्थिति जानने के लिए इनकी तुलना प्राइवेट बैंकों के साथ तीन मानकों पर की जा सकती है. पहला मानक कार्य कुशलता का है. सरकारी बैंकों द्वारा लगातार घाटा खाने से यह स्पष्ट दिखता है कि इनकी कार्यशैली कुशल नहीं है. इनके बैंक के अधिकारियों का कहना रहता है कि राजनीतिक दखल के कारण इन्हें तमाम ऐसे लोन देने पड़ते हैं जो उनकी नजर में सही नहीं होते.

यह सरकारी बैंकों की ढांचागत समस्या है. चूंकि सरकारी बैंकों पर केंद्र सरकार के वित्त सचिव का नियंत्नण रहता है और उनके बोर्ड की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, इसलिए बैंक के अधिकारियों का सहज ही झुकाव केंद्र सरकार की दिशानुसार काम करने का हो जाता है.

प्राइवेट बैंकों में इस प्रकार का कोई संकट नहीं रहता है. प्राइवेट बैंकों के अधिकारी की दृष्टि बैंक द्वारा प्रॉफिट कमाए जाने की ओर रहती है. इसलिए प्राइवेट बैंकों में खटाई में पड़े हुए ऋ ण कम होते हैं. 

दूसरा मापदंड जनता के प्रति जवाबदेही है. सरकारी बैंकों की जवाबदेही मूलत: सरकार के प्रति होती है. इनके बोर्डो में नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है. बीते समय में कई सरकारी बैंकों के शेयरों को बाजार में लिस्ट भी किया गया है.

लिस्ट होने से इनके शेयरों के दाम में उतार-चढ़ाव होने से भी इनकी जवाबदेही बनती है. जैसे यदि किसी बैंक का कार्य ठीक नहीं होता है तो शेयर बाजार में इसके शेयर के दाम गिरने लगते हैं. इसलिए हम कह सकते हैं कि सरकारी बैंकों में आधी जवाबदेही होती है. यह इसलिए कि शेयर बाजार में किसी बैंक के शेयर के दाम गिर भी जाएं तो भी बैंक पर नियंत्नण केंद्र सरकार का ही बना रहता है.

बीते समय में हमने देखा है कि जब बैंकों पर जीवित रहने का संकट मंडराने लगा तो केंद्र सरकार ने इन्हें पूंजी उपलब्ध कराई यानी इनकी जवाबदेही असफल थी. यदि ये बैंक प्रॉफिट नहीं कमा पा रहे थे तो इनके ऊपर सख्त कदम उठाए जाने थे जो कि नहीं उठाए गए.

तीसरा मापदंड सामाजिक दायित्व का है. इसमें कोई संशय नहीं कि सरकारी बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्नों में शाखाएं खोली हैं और तमाम सरकारी योजनाओं को इन्होंने चलाया है, जैसे जन धन एवं मुद्रा योजना. लेकिन अंत में इन ग्रामीण शाखाओं का परिणाम यह होता है कि ग्रामीण क्षेत्न की पूंजी शहर को जाती है.

मेरी समझ से दायित्व की पूर्ति तो तब होती जब शहर में जमा की गई पूंजी को इन बैंकों द्वारा ग्रामीण क्षेत्नों में ऋ ण के रूप में दिया जा रहा होता. लेकिन ऐसा नहीं है. इसलिए सार्वजनिक बैंकों द्वारा सामाजिक दायित्व की पूर्ति भी आधी ही मानी जाएगी.

निजी बैंकों को भी रिजर्व बैंक द्वारा आदेश दिए जाते हैं कि वे दिए गए कुल ऋणों का एक हिस्सा प्रायरिटी सेक्टर को दिया करेंगे जैसे कृषि अथवा छोटे उद्यमों को. लेकिन मेरी जानकारी में प्राइवेट बैंकों द्वारा भी इन नियमों का अनुपालन आधे मन से ही हो रहा है. इसलिए सामाजिक दायित्व के मापदंड पर सरकारी और प्राइवेट बैंक एक सरीखे पड़ते हैं. 

कुल आकलन इस प्रकार बैठता है- सरकारी बैंक अकुशल हैं जबकि प्राइवेट बैंक तुलना में कुशल हैं. सरकारी बैंक की जवाबदेही आधी है जबकि प्राइवेट बैंक में इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती. सामाजिक दायित्व में सरकारी और प्राइवेट बैंक लगभग बराबर पड़ते हैं.

अत: कुल मिला कर सरकारी बैंकों को जनता की कमाई से पूंजी उपलब्ध कराने का कोई औचित्य नहीं बनता. जनता की गाढ़ी कमाई से वसूले गए टैक्स से इनकी अकुशलता को पोषित करने का कोई औचित्य नहीं है. 

टॅग्स :भारतीय स्टेट बैंकगैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए)मोदी सरकार
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