भारत में वर्ष 2024 को कई कारणों से याद किया जाएगा. इनमें इसकी ‘सॉफ्ट पावर’ यानी संगीत की शानदार विरासत भी शामिल है. हमारे देश में संगीत की एक गहन और समृद्ध परंपरा रही है. खास तौर पर संगीत के शास्त्रीय संस्करण की. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में संगीत पांच हजार वर्षों से अधिक समय से मौजूद है. प्राचीन काल में गाए जाने वाले संगीत के प्रकार आज के समय में हम जो गाते-बजाते और सुनते हैं उनसे भिन्न हो सकते हैं किंतु जो मानसिक आनंद मिलता है वह सतत चलता रहता है.
हमारे यहां शास्त्रीय संगीत को पसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है. ये श्रोता न केवल इसे अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर सुनते हैं, बल्कि वे भारत भर में होने वाले छोटे-बड़े संगीत समारोहों में भी बतौर रसिक श्रोता बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से संगीत के अलग-अलग रूप प्रचलित थे. इसकी एक शैली को उत्तर भारतीय शैली कहा जाने लगा, जिसे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी कहते हैं और दूसरे को दक्षिण भारतीय संगीत या कर्नाटक संगीत कहते हैं.
इसी पार्श्वभूमि में मैं आज ‘मियां तानसेन’ को श्रद्धांजलि दे रहा हूं. अगले कुछ दिनों में तानसेन संगीत समारोह ग्वालियर में मनाया जाने वाला है. यह देश के मनाए जाने वाले संगीत समारोहों में से सबसे प्राचीन है. यह इस समारोह का 100वां साल है और मध्य प्रदेश सरकार इस समारोह को देश भर के संगीत प्रेमियों के लिए यादगार बनाने का प्रयास कर रही है.
एक समय में सिंधिया राजघराने की सत्ता का केंद्र रहे ग्वालियर शहर में इस समारोह के दौरान कई प्रमुख गायक, चित्रकार, कलाकार और संगीतकार शिरकत करेंगे. वर्ष 1924 में यह समारोह छोटे रूप से शुरू हुआ, इसके बाद सिंधिया घराने के संरक्षण में यह फला-फूला. यहां हिंदू और मुस्लिम गायक उस महान संगीत सम्राट को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते थे. ग्वालियर राजघराने की साप्ताहिक पत्रिका ‘जयाजी प्रताप’ के 18 फरवरी 1924 के अंक में इस संगीत समारोह का विवरण प्रकाशित है.
उस समय संगीतकारों को मानधन नहीं दिया जाता था, फिर भी वे हर साल तानसेन समाधि पर हाजिरी लगाते थे और इस महान गायक को अपने सुरों की श्रद्धांजलि अर्पित करते थे. तब से चले आ रहे इस समारोह ने भारतीय संगीत परंपराओं को अब तक बहुत अच्छी तरह से सहेजा है और संगीतकारों को तरह-तरह से मंच प्रदान किया है.
मध्य प्रदेश का संस्कृति विभाग प्रतिष्ठित गायक तानसेन के जीवन के सभी पहलुओं को प्रदर्शित करने के लिए एक भव्य आयोजन कर रहा है. मियां तानसेन के साथ कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं. माना जाता है कि उनका जन्म ग्वालियर के पास बेहटा में 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनकी मृत्यु 1589 में ग्वालियर में हुई थी, जो उस समय राजा मानसिंह तोमर के अधीन था. युवा कलाकार तानसेन को संगीत के महान आचार्य स्वामी हरिदास ने संगीत शैली ध्रुपद की तालीम दी थी.
मुंबई में सालों से ध्रुपद के इस महान कलाकार की याद में हरिदास संगीत समारोह का आयोजन भी किया जाता है. हालांकि, तानसेन समारोह अपना 100वां वर्ष मना रहा है, लेकिन जालंधर में होने वाले हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन को सबसे पुराना संगीत समारोह माना जाता है. यह 1875 से होता आ रहा है और असंख्य संगीत प्रेमियों को आनंद प्रदान कर रहा है.
इसी तरह भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी द्वारा 70 वर्ष पहले पुणे में शुरू किया गया सवाई गंधर्व संगीत समारोह भी प्रति वर्ष सफलतापूर्वक आयोजित हो रहा है. यह सब हमारे संगीत धरोहर काे सम्मान के रूप में देखा जाना चाहिए. इन सभी संगीत आयोजनों में तानसेन समारोह का अपना अलग महत्व है. गत सौ वर्षों में यहां देश के अधिकतर भारतीय संगीतकार अपनी प्रस्तुतियां दे चुके हैं. तानसेन समारोह में प्रस्तुति देना हमेशा से ही कलाकारों के लिए प्रतिष्ठा और सम्मान का विषय रहा है, चाहे वे युवा हों या अनुभवी और ख्यात कलाकार ही क्यों न हों.
मुगल शासक, खास तौर पर सम्राट अकबर (1542-1605), कला के अच्छे संरक्षक माने जाते थे. प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि संगीत परंपराएं वैदिक काल से ही प्रचलन में थीं जिन्हें अलग-अलग शासकों ने प्रश्रय दिया. भारतीय साहित्य में संगीत के विभिन्न रूपों, आयोजनों, वाद्ययंत्रों और कलाकारों का भरपूर संदर्भ मिलता है. ‘मियां तानसेन’ (मूल नाम रामतनु पांडे) भारतीय शास्त्रीय संगीत के अग्रणी कलाकारों में से एक थे. उन्हें संगीत शैली ध्रुपद को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है.
इस शैली को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लोकप्रिय रूपों से थोड़ा कठिन माना जाता है. तानसेन ने ध्रुपद का प्रचार किया, लेकिन उनके गुरु स्वामी हरिदास को इसकी उत्पत्ति का श्रेय दिया जाता है. तानसेन को सबसे पहले रीवा के महाराजा ने संरक्षण दिया और बाद में अकबर ने. कहा जाता है कि अकबर ने तानसेन को ‘मियां तानसेन’ की सम्मानजनक उपाधि दी और उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल किया.
तानसेन बहुत बुद्धिमान थे और अकबर के सलाहकार के रूप में भी काम करते थे. बेशक, अकबर के नवरत्नों में बीरबल सबसे प्रसिद्ध थे, उनके बाद राजा टोडरमल का नाम आता है.
संगीत शास्त्र के विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में तानसेन ने श्री, वसंत, भैरव, पंचम, नट नारायण और मेघ जैसे रागों को पुनर्जीवित करके अपना बड़ा योगदान दिया है. इनमें से ऋतु प्रधान राग मेघ के बारे में किंवदंती है कि तानसेन ने जब इसे गाना शुरू किया तो बादल बरस पड़े.