नामवर सिंह नहीं रहे। वट वृक्ष, छतनार, शिखर पुरुष, प्रथम पुरुष, शलाका पुरुष, शीर्ष आलोचक इत्यादि विशेषणों के साथ उनके यार-दोस्त-रक़ीब उन्हें श्रद्धांजलियाँ दे रहे हैं। प्रधानमंत्री, भारत के गृहमंत्री, दिल्ली के मुख्यमंत्री, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री इत्यादि नेताओं ने भी उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया है।
करीब नौ साल पहले साहित्यिक पत्रिका पाखी ने नामवर सिंह विशेषांक प्रकाशित किया था। इस विशेषांक में पत्रिका के संपादक प्रेम भारद्वाज और दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन विभागाध्यक्ष प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने नामवर सिंह के साथ एक 'एकाक्षरी' साक्षात्कार किया था। उसी एकाक्षरी का चयनित अंश हम नीचे पाखी पत्रिका से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं-
प्रेम भारद्वाज के प्रश्न और नामवर सिंह के जवाब
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मूल शिक्षा क्या ग्रहण की?
चढ़िए हाथी ज्ञान को सहज दुलीचा डाल
मंच पर जाने से पहले की तैयारी कैसी होती है?
अध्यापन-कक्ष में जाने जैसी, जो अक्सर बेकार साबित होती है।
अकेलापन कितना परेशान करता है?
वैसे तो अकेले होने के क्षण कम ही होते हैं, लेकिन जब होते हैं तो आलम कुछ ऐसा होता है-
तुम मेरे पास होते हो गोयाजब कोई दूसरा नहीं होता!
लेकिन उस 'तुम' के बारे में सवाल न ही करें तो अच्छा!
प्रेम आपकी दृष्टि में?
'प्रेमा पुमर्थो महान्'
हिन्दुत्व क्या है आपकी नजर में?
'त्व' अवांछित है।
बड़े आलोचक की पहचान?
राजशेखर की 'काव्य मीमांसा' के अनुसार जो 'तत्वाभिनिवेशी' है और आनंदवर्धन की तरह 'सहृदय-हृदय चक्रवर्ती' गोपेश्वर सिंह के प्रश्न, नामवर सिंह के उत्तर
ऐसा काम जिसे करने का अफसोस हो?
अफसोस तो यही है कि अफसोस भी नहीं।
ऐसा काम जिसे न करने का अफसोस हो?
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले...
वह अकेली पुस्तक जिसे आप निर्वासन में साथ रखे?
रामचरित मानस।
आपका प्रिय भोजन?
सत्तू
दुबारा जीवन मिले तो आप कैसा जीवन जीना चाहेंगे?
पुनर्जन्म में विश्वास ही नहीं है।
आपकी प्रिय अकेली आलोचना पुस्तक?
दूसरी परंपरा की खोज
अकेला आलोचक?
विजय देव नारायण साही
अकेला कवि?
रघुवीर सहाय
अकेला कहानीकार?
निर्मल वर्मा
अकेला उपन्यासकार?
फणीश्वरनाथ रेणु
अकेला निबंधकार?
हरिशंकर परसाई
किसी एक महापुरुष को चुनना हो तो किसे चुनेंगे?
महात्मा गाँधी
गाँधी और मार्क्स में किसी एक को चुनना हो तो?
मार्क्स को, विचारक के रूप में।
बनारस से उखड़कर दिल्ली में आ बसने पर आपने क्या खोया और क्या पाया?आपा खोया, सरोपा पाया।
अध्यापन आलोचना में कितना सहायक, कितना बाधक होता है?वह तो एक तरह से मेरी 'प्रयोगशाला' रही है। अब वह छुटी तो अपना लिखना भी कम हो गया! वह शेर है न-
जब मैक़दा छुटा तो फिर अब क्या जगह की कैद। मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई खानाख्वाह हो!
परिवार आलोचना-कर्म में बाधक है या साधक?यहाँ तो कोई परिवार भी अब नहीं रहा! फिर भी लिखना कहाँ हो पाता है?
लिखा तो सब कुछ तभी जब भरा पूरा परिवार साथ था- मेरा अपना सच तो यही है।